मुंबई,०७ दिसंबर। संजीव कुमार ने अपने अभिनय और व्यक्तित्व से भारतीय फ़िल्म जगत में अपनी अमिट छाप छोड़ी। अपने छोटे से जीवन काल में कई फिल्मों में उन्होंने यादगार अभिनय किया। अपने जीवंत अभिनय से उन्होंने शोले के ठाकुर जैसे साधारण किरदार को अमर कर दिया। उनका निजी जीवन भी फिल्मी कहानियों के समान ही रहा है। आइए नज़र डालते हैं उनके जीवन की फिल्मी कहानी पर।
संजीव कुमार का जन्म ९ जुलाई १९३८ को सूरत के एक गुजराती ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम जेठालाल था। फिल्मों में आने से पहले उनका नाम हरिहर जरीवाला था। उनके पिता जी कृष्ण भगवान के बहुत बड़े भक्त थे इसलिए उनका नाम हरिहर जरीवाला रख दिया।
घर की हालत ठीक नहीं थी इसलिए उन्होंने हरि का दाखिला एक सरकारी हिंदी मीडियम स्कूल में करा दिया। खैर हरि का मन पढ़ाई-लिखाई में नहीं रहता था। कहीं ना कहीं बचपन से ही उन्हें फिल्मों का बहुत शौक था।
हरि ने एक्टिंग स्कूल में दाखिला लेने के बारे में सोचा। उस समय फेमस डायरेक्टर शशिधर का एक्टिंग स्कूल फिल्मालय हुआ करता था। उन्होंने भी यहीं पढ़ाई करने का मन तो बना लिया पर उन्हें जब एडमिशन फीस के बारे में पता चला तो वो बेहद निराश हो गए और घर आकर दुखी मन से बिना खाए सो गए।
जब उनकी मां को इस बात का पता चला तो उन्होंने मान मनुहार और कसम देकर उन्हें मजबूर किया और अपने गहने देकर उनका एडमिशन कराया।
फिल्मालय का सफर तय करने के बाद, वह ईप्टा गए और वहां उनकी मुलाकात ए.के. हंगल से हुई। उनसे ए.के. हंगल बहुत प्रभावित हुए।
हरि भाई उन दिनों गुजराती नाटकों में बहुत एक्टिव थे। हालांकि उन्हें लीड रोल नहीं मिलता था। एक बार लीड एक्टर की तबीयत खराब होने के कारण उन्हें लीड रोल दिया गया। ए के हंगल भी उस नाटक को देखने आए थे और वह उनके काम से बेहद खुश हुए।
हरि भाई ने पहली बार फिल्म हम हिंदुस्तानी में काम किया था। इसके बाद उन्हें काम नहीं मिल रहा था।
फिल्म मांगने के लिए वो डायरेक्टर्स और प्रोड्यूसर्स के घर के चक्कर लगाने लगे। बहरहाल निराशा ही हाथ लगी। कुछ फिल्मों में उन्हें साइन किया गया, लेकिन बाद में उन्हें रिप्लेस कर दिया गया। इन सारी चीजों ने उन्हें बहुत तोड़ दिया।
इस सिचुएशन का उन पर बहुत खराब असर पड़ा और वो डिप्रेशन में चले गए। उनकी हालत देख लोग उन्हें पागल कहने लगे। इस बुरे वक्त में उनकी मां और कुछ दोस्तों ने उनका बहुत सपोर्ट किया जिससे वो डिप्रेशन से बाहर निकल पाए।
जब उन्हें ए-ग्रेड फिल्मों में काम नहीं मिला, तो उन्होंने खुद को रोका नहीं और बी-ग्रेड फिल्मों की तरफ रुख कर लिया। बी ग्रेड फिल्मों में काम करने के कुछ साल बाद उनको बड़ी सफलता मिली।
उनका नाम संजीव कुमार पड़ने के पीछे भी एक कहानी है। दरअसल फिल्मी दुनिया में सफर शुरू करने के बाद उन्हें नाम बदलने की सलाह दी गई तो अपनी मां शांता के नाम के पहले अक्षर पर उन्होंने अपना नाम संजय कुमार रख लिया।
शुरुआती कुछ फिल्मों में उनका नाम संजय कुमार ही रहा, लेकिन एक फिल्म में वो संजय खान के साथ दिखाई देने वाले थे। एक फिल्म में दो सितारों का एक ही नाम होने पर लोगों ने कहा कि फिर से संजय को अपना नाम बदल लेना चाहिए और इसी के बाद उनका नाम पड़ा संजीव कुमार।
६ नवंबर १९८५ को संजीव कुमार की मौत हो गई थी। मौत के बाद उनकी १० से ज्यादा फिल्में रिलीज हुई थीं और कुछ की शूटिंग भी बाकी रह गई थी। १९९३ में संजीव कुमार की अंतिम फिल्म प्रोफेसर की पड़ोसन रिलीज हुई थी।
वहीं उन्हें फिल्म दस्तक (१९७०) और फिल्म कोशिश (१९७२) के लिए नेशनल फिल्म अवॉर्ड से सम्मानित किया गया था। वो ४ बार फिल्मफेयर अवॉर्ड भी अपने नाम कर चुके थे।
