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भाविनी मिश्रा नेशनल ऑनलाइन काव्य पाठ में आई प्रथम

बिजनौर। उम्मीद संस्था दिल्ली द्वारा हिंदी दिवस पर काव्य पाठ का ऑनलाइन आयोजन कराया। जिसमें देशभर से हजारों प्रतिभागियों ने प्रतिभाग किया। इस ऑनलाइन काव्य पाठ में बिजनौर से भाविनी मिश्रा की कविता को पहला स्थान मिला। उनकी इस उपलब्धि पर डीएम बिजनौर उमेश मिश्रा ने कहा कि अब महसूस हो रहा हैं हम हिंदी के संस्कार को अगली पीढ़ी तक बढ़ाने में सफल हुए हैं।
हिंदी दिवस पर उम्मीद संस्था दिल्ली द्वारा ऑनलाइन काव्य पाठ का आयोजन कराया गया था। इस ऑनलाइन काव्य पाठ में देश भर से हजारों प्र‌तिभागियों ने प्रतिभाग कर अपनी कविता को सुनाया। इसमें बिजनौर से भाविनी मिश्रा ने भी प्रतिभाग किया। भावनी मिश्रा ने अपनी कई कविताएं सुनाई।

गुलाब

नीला समां है

सुनहरी लहरों से मानो रोशन यह सारा जहां है

गुफ्तगू कर रही है धरा अपने हर हिस्से के सिलसिले में

केसरिया कान्ति में,

हरी पत्तियों की ओट लिये हुए,

सफेदी सी निर्मल काया है उसकी

धर्म के लिबास नहीं ओढ़े हैं अभी गुलाब ने

अभी नहीं सिखाया है खुद को मतलबी होना

अभी तो निष्पाप है मस्तिष्क

अभी तो सरल है मन की लहर

श श श ….

हरकत हो चुकी है

गुलाब की कली खिलखिला

रही है

तमन्नाएं कई हैं उसकी,

कुछ गुलाबों सा बनना है उसे, 

कुछ समवयस्कों को

पीछे छोड़ निकलना है उसे

निखरना है उसे, चमकना है उसे…

अभी मासूम है वो,

नहीं देखी है अभी उसने चमन में मुरझाई हुई राहें

तारे को सुलाते हुए तिमिर की ओढऩी

न देखा है और न ही महसूस किया है,

न ढंगों को बदलते हुए, न निष्ठुर समाज को

स्थिर होते हुए…

रुको जरा, ठहरो, सुनने दो मुझे…

महरताबा की किरणें बिखरी हुईं हैं, 

हर ज़र्रे में हवा की मीठी सी सुगंध है

खामोशी है चारों ओर, 

खुसफुसाहट तो बस उस कली के खिलने की है।

गुलाब अब हौले से खिल रहा है,

मुद्दतों बाद वह निखर रहा है,

जैसा सोचा था वैसा-सा ही कुछ हो रहा है

‘सब पाना चाहते हैं मुझे,

मुझ जैसा ही लगना चाहते हैं,

मेरी हकीकत भी, उनका ख्वाब हैÓ

भोर से संध्या तक का सफर, गुलाब का, कभी

पवन की बांहों में झूलते हुए,

सूर्य की कान्ति में चमकते हुए

ओस की माला पहनते हुए,

भंवरे के साथ कुछ गीत गुनगुनाते हुए, 

व्यतीत हो जा इतराता है गुलाब, इठलाता भी है,

‘प्रेम में अनुरक्त व्यक्ति हो, या प्रभु का आराधक,

सभी मुझे पाना चाहते हैं…Ó

सबकी चाहत बन खुदा सा नूरी हो जाता है गुलाब,

अपनी सफलता के चरम पर बैठ मुस्कुराता है गुलाब

अपनी सुगंध और नूर में इतना मशगूल हो जाता है 

कि उसको कांटों का $खयाल ही नहीं आता है।

कुछ दिनों बाद जिन्दगी अपनी फितरत दिखाती है, 

रंगों से भरी संध्या फिर अंधेरे में डूब जाती है…

गुलाब की पंखुडिय़ा न जाने क्यों मायूस हो गई,

मानो उसकी लाली पर समय का ग्रहण लग गया…

शाम और समय के साथ सब बदल गया…

गुलाब धीरे-धीरे ढलकर बिखरता चला जाता है

जो तारा अब तक रोशन था, 

वो बादल में ओझल सा हो जाता है।

समुन्दर में मिलती हुई नदी जैसे,

उसका अस्तित्व ही मानो गुम हो जाता है।

समय का शिकार गुलाब,

अब अपनी आंखों से हालात बदलते देखता है

प्रेम में अनुरक्त व्यक्ति हो या, प्रभु का अराधक

सबकी अनदेखी देखकर, वह सोचने पर 

विवश हो जाता है।।

कि शायद ठीक ही कहा गया है..

जो उदय है वो अस्त अवश्य होगा

उत्थान के पश्चात पतन अवश्य होगा

जीवन का यही नियम है

घड़ी के हर बदलते कांटे के साथ, 

बदलाव अवश्य होता ही है।

जो कल तक अपना था वह पराया अवश्य हो जायेगा

जो आज हकीकत है, 

वह कल किस्सा अवश्य बन जायेगा…

मायूस है गुलाब, ढलती हुई रंगत में भी

उसको अलग सा सुकून दिखता है

मन कहीं से आनंद है, तो कहीं हताश

हर्षित है वह अपनी हर सफलता पर,

और मायूस अपने पौधे को देखकर…

जो उसके  अवसान के बाद निस्तेज हो जायेगा

बागवान हो या सवेरा सबकी अनदेखी सह, 

पौधा निराश हो जायेगा।

तभी, एक नन्हीं कली खिलखिलाती है,

पौधे के अंधेरे नभ में, नई कान्ति सी छा जाती है

गुलाब सन्तुष्ट हो जाता है,

सबका विकल्प तत्क्षण 

मिल जाता है

जिस धरा से जन्मा था,

आज उसको अपनी

पंखुडिय़ों से सज्जित कर,

गुलाब उसी में मिल जाता है।

-भाविनी मिश्रा

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