सन १९०० में जब समूचे छत्तीसगढ़ में प्रिंटिंग प्रेस नही था तब इन्होंने बिलासपुर जिले के एक छोटे से गांव पेंड्रा से “छत्तीसगढ़ मित्र” नामक मासिक पत्रिका निकाली।हालांकि यह पत्रिका सिर्फ़ तीन साल ही चल पाई।
सप्रे जी ने लोकमान्य तिलक के मराठी केसरी को यहाँ हिंदी केसरी के रूप में छापना प्रारम्भ किया तथा साथ ही हिंदी साहित्यकारों व लेखकों को एक सूत्र में पिरोने के लिए नागपुर से हिंदी ग्रंथमाला भी प्रकाशित की। उन्होंने कर्मवीर के प्रकाशन में भी महती भूमिका निभाई।
संस्थाओं को गढ़ना और लोगों को राष्ट्र के काम के लिए प्रेरित करना सप्रे जी के भारतप्रेम का अनन्य उदाहरण है। रायपुर, जबलपुर, नागपुर, पेंड्रा में रहते हुए उन्होंने न जाने कितने लोगों का निर्माण किया और उनके जीवन को नई दिशा दी। २६ वर्षों की उनकी पत्रकारिता और साहित्य सेवा ने नए मानक रचे। १९२० में उन्होंने जबलपुर में हिंदी मंदिर की स्थापना की, जिसका इस क्षेत्र में सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों को बढ़ाने में अनूठा योगदान है। कुछ लोग उन्हें हिन्दी का प्रथम समालोचक भी मानते हैं।
सप्रे जी १९२४ में हिंदी साहित्य सम्मेलन के देहरादून अधिवेशन में सभापति रहे। उन्होंने १९२१ में रायपुर में राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना की और रायपुर के पहले कन्या विद्यालय जानकी देवी महिला पाठशाला की भी स्थापना की। २६ अप्रैल १९२६ साहित्य और पत्रकारिता का यह अनन्य सेवक चिर निद्रा में लीन हो गया।