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बीजेपी-कांग्रेस के लिए किस वजह से खास बन गया है तेलंगाना चुनाव

हैदराबाद। सिर्फ 119 विधानसभा सीटों वाले तेलंगाना राज्य में कांग्रेस और बीजेपी दोनों के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। दोनों ही पार्टियां वहां सत्ता से बाहर हैं, इसलिए सत्ता को बचाने की चुनौती दोनों पार्टियों के लिए नहीं है। कांग्रेस के लिए तो कहा जा सकता है कि वह मुख्य लड़ाई में है लेकिन बीजेपी तो रेस से ही बाहर है। बावजूद इसके यह चुनाव दोनों ही पार्टियों के लिए बेहद अहम है। टीडीपी प्रमुख चंद्रबाबू नायडू 2019 के मद्देनजर राष्ट्रीय स्तर पर जो प्रयोग करना चाह रहे हैं, उसके ‘माइक्रो वर्जन’ का एक तरह से ट्रायल होगा तेलंगाना के चुनाव में। कांग्रेस के नेतृत्व में नायडू ने यहां पीपल्स फ्रंट तैयार किया है, जिसमें कुल चार पार्टियां है। वोटों के बिखराव को रोकने में अगर यह फ्रंट कामयाब हो जाता है तो फिर राष्ट्रीय स्तर पर इसके प्रयोग को हौसला मिलेगा लेकिन अगर विफल हो जाता है तो महागठबंधन की कवायद को भी ब्रेक लगेगा।
नतीजे फ्रंट के पक्ष में आए तो कांग्रेस-टीडीपी के रिश्ते मजबूत होंगे और यह गठबंधन आंध्र प्रदेश तक जा सकता है। वहीं तेलंगाना में ही दोनों के गठबंधन को कामयाबी नहीं मिली तो इसका हश्र यूपी में एसपी-कांग्रेस के गठबंधन जैसा हो सकता है। जहां विधानसभा के चुनाव में पराजय मिलते ही बंधन की गांठें खुल गईं और दोनों पार्टियों ने फिर उपचुनावों में एक-दूसरे का साथ करना गंवारा नहीं समझा। दूसरी बात यह है कि आंध्र प्रदेश में राजनीतिक नुकसान का जोखिम उठाकर कांग्रेस पार्टी ने तेलंगाना राज्य का गठन किया था। नए राज्य के गठन के बाद हुए पहले चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने अपनी हार को केसीआर का धोखा करार दिया था लेकिन अगर वह दूसरे चुनाव में भी सत्ता में नहीं पहुंचती तो इसके लिए केसीआर नहीं बल्कि वह खुद जिम्मेदार होगी। इसका एक साफ संदेश होगा कि स्थानीय वोटर्स उसे पसंद नहीं कर रहे हैं। अगले पांच सालों का रास्ता पार्टी के लिए और मुश्किल हो जाएगा। 2019 में सीटों की संख्या के लिहाज से उसे झटका लगेगा। इन वजहों से यह चुनाव इस पार्टी के लिए भी बहुत अहम है।
बीजेपी को मालूम है कि यहां की जो क्षेत्रीय पार्टियां-टीआरएस और टीडीपी हैं, वे विपरीत सिरों पर खड़ी पार्टियां हैं। जिस तरह से तमिलनाडु में डीएमके और एआईएडीएमके किसी एक पाले में नहीं खड़ी हो सकतीं, तेलंगाना की पॉलिटिक्स में यही स्थिति टीआरएस और टीडीपी की है। अब जबकि टीडीपी ने अपने पत्ते खोल दिए हैं और वह कांग्रेस के साथ खड़ी है तो टीआरएस का कांग्रेस के साथ जाने का सवाल ही नहीं उठता। राज्य से 17 सांसद चुने जाते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर दो ही पाले हैं। एक बीजेपी के नेतृत्व में और दूसरा कांग्रेस के नेतृत्व में। बीजेपी को लगता है कि 2019 में सरकार बनाने के लिए अगर उसे कुछ क्षेत्रीय दलों के सहयोग की जरूरत पड़ी तो टीआरएस से समर्थन मिल सकता है क्योंकि इस पार्टी के पास राष्ट्रीय राजनीति में टीडीपी से मुकाबिल होने के लिए एनडीए के साथ आने के सिवा कोई विकल्प नहीं होगा। ऐसे में बीजेपी राज्य में टीडीपी के मुकाबले टीआरएस को मजबूत होते देखना चाहेगी। अगर विधानसभा के चुनाव में टीआरएस सत्ता से बेदखल हो गई तो फिर लोकसभा का चुनाव भी उसके लिए मुश्किल हो जाएगा।
राज्य में कांग्रेस-टीडीपी गठबंधन की सरकार बनने पर बीजेपी को राज्य में अपने विस्तार की संभावनाओं पर भी ब्रेक लगता दिख रहा है। भले ही वह मुख्य लड़ाई में न हो लेकिन राज्य में अपनी दखलअंदाजी बनाए रखना चाहती है। एक संभावना यह आंकी जा रही है कि अगर टीआरएस बहुमत से कुछ सीटें दूर रह गई तो बीजेपी समर्थन देने-लेने का रास्ता खुला रख सकती है।

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