यह बात पश्चिम की चिंता बताएगी कि दुनिया भर के देश अपनी रिजर्व करेंसी में चीन की मुद्रा युवान का हिस्सा बढ़ा रहे हैँ। इससे डॉलर के वर्चस्व के लिए खतरा पैदा हो रहा है।
यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद अमेरिका और पश्चिमी देशों ने रूस पर जो प्रतिबंध लगाए, उसका उलटा असर उन्हें झेलना पड़ रहा है। महंगाई और ईंधन के अभाव ने पूरी पश्चिमी दुनिया के बाशिंदों को परेशान कर रखा है। इसके दीर्घकालिक आर्थिक नुकसान का अंदाजा अब लगाया जा रहा है। उधर राजनीतिक उथल-पुथल की संभावनाएं भी जताई जा रही हैं। इसी बीच यह बात भी पश्चिमी रणनीतिकारों की चिंता बढ़ा रही है कि दुनिया भर के सेंट्रल बैंक अपनी रिजर्व करेंसी में चीन की मुद्रा युवान का हिस्सा बढ़ा रहे हैं। इससे अंतर्राष्ट्रीय कारोबार में अमेरिकी मुद्रा डॉलर के वर्चस्व के लिए ख़तरा पैदा हो रहा है। यह बात यूबीएस एसेट मैनेजमेंट कंपनी ने अपनी ताजा वार्षिक रिपोर्ट में कही है। यह कंपनी हर साल मुद्रा भंडार प्रबंधन सर्वे रिपोर्ट जारी करती है। कंपनी द्वारा जारी की गई ताजा रिपोर्ट के मुताबिक विश्व के ८५ प्रतिशत सेंट्रल बैंकों ने बताया कि उन्होंने युवान में या तो निवेश किया है, या ऐसा करने पर वे गंभीरता से सोच रहे हैं।
ये संख्या पिछले साल ८१ प्रतिशत थी। सेंट्रल बैंक अपने भंडार में अगले दस साल में युवान के हिस्से को औसतन ५.८ प्रतिशत तक ले जाने पर विचार कर रहे हैं। यह मौजूदा स्तर की तुलना में बड़ी बढ़ोतरी होगी। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने पिछले हफ्ते ही बताया था कि फिलहाल विश्व भर में सेंट्रल बैंकों के भंडार में औसतन २.९ प्रतिशत हिस्सा युवान का है। असल में यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद पश्चिमी देशों ने जिस तरह रूस की विदेशी मुद्रा को जब्त कर लिया, उससे डॉलर के प्रति विभिन्न देशों का भरोसा घटा है। तो अब वे अलग मुद्राओं में निवेश करने की योजना बना रहे हैं। ये आंकड़ा भी ग़ौर करने वाला है। यूबीएस के सर्वे में शामिल ३० प्रमुख देशों के विदेशी मुद्रा भंडार में बीते जून में डॉलर का हिस्सा ६३ प्रतिशत था। जबकि २०२१ के जून में ये हिस्सा बढ़कर ६९ प्रतिशत हो गया। स्पष्टत: यूक्रेन युद्ध ने सारी सूरत बदल दी है। हाल के वर्षों में चीन में दर्ज हुई मजबूत आर्थिक वृद्धि के कारण आर्थिक क्षेत्र में चीन अमेरिका का विकल्प बन कर उभर रहा है। इसी कारण अब बहु-ध्रुवीय विश्व की चर्चा शुरू हो गई है।
इस बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के कई शक्ति केंद्र कहे जा रहे हैं जिनमें अमेरिका के अलावा रूस, चीन तथा भारत मुख्य हैं। पिछले कुछ वर्षों में जहां चीन ने अपनी आक्रामक बाज़ार तथा कर्ज़ नीति के दम पर विश्व में अपने आप को एक मजबूत शक्ति केंद्र के रूप में स्थापित किया है, तो वहीं भारत ने भी अपनी प्रतिभा, सशक्त नेतृत्व तथा विशाल कार्यशील जनसंख्या के दम पर खुद को एक ऐसे देश के रूप में स्थापित किया है जिसकी अवहेलना करना आज के समय में विश्व के किसी भी देश के लिए संभव नहीं है।
लेकिन विश्व में बहुध्रुवीय व्यवस्था की यह परिकल्पना अमेरिका तथा उसके समर्थक राष्ट्रों के लिए हजम करने वाली बात नहीं है, क्योंकि लंबे समय से अपनी डॉलर नीति के दम पर अमेरिका में खुद को उपभोक्तावाद का प्रतीक बना लिया है। अपनी नीतियों के विपक्ष में जाने पर अमेरिका तथा समर्थक राष्ट्रों द्वारा प्रतिबंधों की जो नीति लंबे समय से अपनाई जाती रही है, यूरोप सहित विभिन्न अमेरिकी समर्थक राष्ट्रों पर अब यह नीति भारी पड़ रही है।