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न्याय बनाम राजनीति

निर्विवाद है कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या एक आतंकवादी कार्रवाई थी। इसके बावजू़द इस कार्रवाई को अंजाम देने वाले लोगों के प्रति तमिलनाडु के आबादी के एक बड़े हिस्से में हमदर्दी बनी रही। ठीक उसी तरह जैसे पंजाब की आबादी के एक हिस्से में खालिस्तानी आतंकवादियों के प्रति रही है। उनमें वे आतंकवादी भी हैं, जिन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या की। ऐसे अपराधियों के प्रति खुलेआम सहानुभूति जताना और उनकी रिहाई की मांग करना वहां लंबे समय से जारी रहा है। तो चुनावी राजनीति के तक़ाज़ों की वजह से वहां के राजनीतिक दल भी इस मांग के साथ चलने में अपना लाभ देखते रहे हैं। लेकिन अब कल्पना कीजिए। अगर ऐसी ही हमदर्दी कई आतंकवादी घटनाओं में सज़ा पाए मुसलमानों से दिखाई जाए या उनकी रिहाई की मांग की जाए, तो देश में कैसी प्रतिक्रिया होगी? आज के माहौल में क्या बिना अपनी जान को जोख़िम मे डाले ऐसा करना संभव भी है? इस सवाल का सीधा संबंध राजीव गांधी हत्याकांड के अपराधी एजी पेरारिवलन की रिहाई से है। उसे रिहा करने की तमिलनाडु सरकार की अपील सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार कर ली।

यह सवाल अपनी जगह वाजिब हो सकता है कि आखिर किसी सभ्य और मानवीय व्यवस्था में अपराध की सज़ा किस हद तक होनी चाहिए? लेकिन यह व्यापक बहस का विषय है। उस बहस का एक अहम पहलू यह है कि मृत्युदंड का प्रावधान होना ही नहीं चाहिए। साथ ही उम्र कैद का मतलब क्या है, इसकी एक सुपरिभाषित व्यवस्था होनी चाहिए। मगर हकीकत यह है कि अपने देश में मृत्युदंड का प्रावधान है और उम्र कैद के बारे में वैसी कोई व्यवस्था नहीं है। तो क्या फिर यह नहीं कहा जाएगा कि पेरारिवलन का मामला इंसाफ पर राजनीति के हावी होने की एक मिसाल है? कल्पना कीजिए, आज अगर कांग्रेस मजबूत अवस्था में होती और तमिलनाडु या केंद्र में उसका शासन होता, तो क्या ये रिहाई संभव होती? इसीलिए ये रिहाई समस्याग्रस्त है। यह इस बात का संकेत देती है कि राजनीति में जो ताक़तें हावी हैं, इंसाफ उनकी सोच से तय होता है। जबकि इंसाफ को कानून, संविधान और उच्चतम स्तर के विवेक से तय होना चाहिए।

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