107 Views

आबे के बाद बड़ी हुई चीन की चुनौती -अजीत द्विवेदी

आबे की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या के बाद क्वाड के देशों- अमेरिका, भारत और ऑस्ट्रेलिया ने एक साझा बयान में कहा कि आबे की स्मृति के सम्मान में ये देश क्षेत्रीय शांति और समृद्धि सुनिश्चित करने के लिए दोगुना काम करेंगे। यहीं आबे की स्मृति को सच्ची श्रद्धांजलि होगी कि अमेरिका, भारत और ऑस्ट्रेलिया मिल कर क्षेत्रीय संप्रभुता की रक्षा करें और चीन की विस्तारवादी नीतियों को रोकें।
भारत में परिवारवाद, वंशवाद आदि को लेकर चल रही गैरजरूरी बहसों के बीच भारत और विश्व मीडिया में बेहद गर्व के साथ यह बात बताई जा रही है कि जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे अपने परिवार की तीसरी पीढ़ी के नेता थे। उनके नाना जापान के प्रधानमंत्री थे और पिता जापान के विदेश मंत्री थे। वे खुद जापान के सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहे। उन्होंने अपने करीब १५ साल के कार्यकाल में जापान को एक नई दिशा दी और साथ ही विश्व परिदृश्य को बदलने में भी अहम भूमिका निभाई। वे हमेशा कहते रहे कि वे जैसे हैं वैसा उनको बनाने में उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि ने बड़ी भूमिका निभाई है। असल में उनके नाना ऐसे समय में देश के प्रधानमंत्री बने थे, जब जापान अपने अस्तित्व के सबसे मुश्किल समय से गुजर रहा था। दूसरे विश्वयुद्ध में दो परमाणु हमले का शिकार होकर लगभग नष्ट हो चुके जापान के शुरुआती दिनों में उनके नाना नोबुशुके किशी ने जापान की कमान संभाली थी।
सो, आबे को राजनीति के साथ साथ विरासत में वो तमाम कहानियां भी मिली, जो बताती थीं कि कैसे राख से उठ कर कोई देश दुनिया का सबसे समृद्ध देश बनता है। छोटे से आबे ने अपने नाना से यह कहानी भी सुनी थी कि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें कैसा सम्मान दिया था। नोबुशुके किशी जापान के पहले प्रधानमंत्री थे, जो भारत के दौरे पर आए थे। युद्ध समाप्त होने के १२ साल बाद १९५७ में जब वे भारत आए तो नेहरू ने भारतीयों के सामने उनका परिचय यह कहते हुए दिया था कि ‘ये जापान के प्रधानमंत्री हैं, वह देश जिसे मैं बहुत उच्च सम्मान के स्थान पर रखता हूं।’ बहुत बाद में आबे ने इस बात को याद करते हुए कहा था कि एक हारे हुए मुल्क के नेता को निश्चित रूप से नेहरू की यह बात बहुत अच्छी लगी होगी। आबे जब प्रधानमंत्री बने और भारत के साथ संबंधों को नई दिशा और नई ऊंचाई पर ले जाने का प्रयास शुरू किया तब भी उन्होंने कई बार नेहरू को याद किया। क्योंकि उन्हें एक विरासत को आगे बढ़ाना था, जिसमें १९९८ के परमाणु परीक्षण के बाद एक विराम आ गया था। हालांकि भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और जापान के तत्कालीन प्रधानमंत्री योशिरो मोरी ने परमाणु परीक्षण के बाद के प्रतिबंधों के बावजूद सन् २००० में वैश्विक साझेदारी का एक करार किया था और उस समय दोनों देशों के संबंधों में बदलाव आना शुरू हो गया था।
शिंजो आबे ने इस बदलाव को आगे बढ़ाने और सही दिशा में ले जाने का संकल्प दिखाया। उनका भारत के प्रति खास लगाव रहा और निश्चित रूप से अपने पूर्वजों से मिली विरासत की वजह से ऐसा था। इसके बावजूद शिंजो आबे एक ऐसे विश्व नेता थे, जो शांति, स्वतंत्रता और क्षेत्रीय संप्रभुता के बड़े हिमायती नेता थे। वे मानते थे कि शांति सिर्फ शांति का पाठ पढ़ाने से नहीं आएगी। निश्चित रूप से आबे परमाणु हथियार को डिटरेंट मानने वाले सिद्धांत के समर्थक नहीं थे लेकिन वे मजबूत जापान के हिमायती थे। इसलिए उन्होंने शांतिपाठ के साथ साथ साझा विचार वाले देशों के साथ सैन्य अभियानों में हिस्सा लेना शुरू किया। उन्होंने जापान को विश्व शांति के रक्षक की भूमिका में लाने के प्रयास किए और इसके लिए अपने यहां शासन की व्यवस्था के सिद्धांतों को भी बदला।
वे जापान के पहले प्रधानमंत्री थे, जो शांतिवाद के समर्थन के बावजूद भारत में गणतंत्र दिवस परेड में मुख्य अतिथि बने और भारत के सैन्य शक्ति प्रदर्शन को देखा। जापान ने पहली बार २०१३ में भारत के साथ साझा नौसेना अभ्यास में हिस्सा लिया और इसके अगले साल २०१४ में वे गणतंत्र दिवस परेड में मुख्य अतिथि बने। उन्होंने पहली बार जापान में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार नियुक्त किया। ये कुछ ऐसी बातें हैं, जो उन्हें जापान के दूसरे प्रधानमंत्रियों से अलग करती हैं।
शिंजो आबे एशिया की भू-राजनीतिक स्थितियों को किसी भी दूसरे नेता के मुकाबले बेहतर समझते थे। वे चीन के आर्थिक, सामरिक व भौगोलिक विस्तारवाद को साफ-साफ देख रहे थे। पता नहीं कैसे भारत के नेताओं की आंखों पर पट्टी बंधी रही। भारत की मौजूदा सरकार भी अपवाद नहीं है। लेकिन २००७ में जब पहली बार आबे भारत के दौरे पर आए थे तब मनमोहन सिंह की सरकार थी और उस समय चीन के साथ आर्थिक संबंध परवान चढ़ रहे थे। भारत सरकार के साथ साथ अलग अलग राज्यों के मुख्यमंत्री भी चीन का दौरा कर रहे थे। तब आबे के सामने भारत को समझाने की चुनौती थी। उन्हें समय लगा लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। वे मानते थे कि हिंद महासागर का देश भारत और प्रशांत महासागर का जापान जब तक साथ नहीं आएंगे, तब तक हिंद-प्रशांत में न शांति सुनिश्चित की जा सकती है और न समृद्धि।
शिंजो आबे ने सुरक्षित, मुक्त और समृद्ध हिंद प्रशांत के लिए क्वाड की परिकल्पना की थी। भारत और जापान के साथ साथ अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया को शामिल करके एक मजबूत समूह बनाने का विचार उनका था। चीन की विस्तारवादी नीतियों पर नजर रखने और उसे नियंत्रित करने के साथ साथ हिंद-प्रशांत क्षेत्र के सैन्य करण को रोकने के लिए इस तरह का समूह कितना जरूरी था वह मौजूदा हालात को देख कर पता चल रहा है। आबे अपने लक्ष्य में काफी हद तक कामयाब हुए। उन्होंने चार देशों का समूह बना दिया और इस समूह के देशों के नेताओं की लगातार मुलाकातें भी हो रही हैं। लेकिन अफसोस की बात है कि अभी तक इस समूह ने चीन को नियंत्रित करने या हिंद-प्रशांत के सैन्यकरण को रोकने के लिए कोई ठोस पहल नहीं की है। इस समूह के चार देशों के बीच संबंधों में कई नए आयाम जुड़े हैं लेकिन क्वाड का मकसद वह नहीं था। उसका मकसद चीन को रोकना था। आबे की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या के बाद क्वाड के देशों- अमेरिका, भारत और ऑस्ट्रेलिया ने एक साझा बयान में कहा कि आबे की स्मृति के सम्मान में ये देश क्षेत्रीय शांति और समृद्धि सुनिश्चित करने के लिए दोगुना काम करेंगे। यहीं आबे की स्मृति को सच्ची श्रद्धांजलि होगी कि अमेरिका, भारत और ऑस्ट्रेलिया मिल कर क्षेत्रीय संप्रभुता की रक्षा करें और चीन की विस्तारवादी नीतियों को रोकें।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top