कहा जाता है कि जिन दिनों तुलसीदासजी श्रीरामचरित मानस लिख रहे थे. प्रभु श्रीराम ने हनुमान जी के भक्तिभाव की परीक्षा लेने की ठानी. उन्होंने सोचा हनुमानजी के माहात्म्य को संसार से परिचित कराने का इससे बेहतर अवसर कहां मिलेगा! उन्होंने अपनी लीला रच दी.
सुन्दरकाण्ड को लिखते-लिखते तुलसीदास जी ने हनुमानजी को श्रीराम के समान महान लिखते चले गये. कहा जाता है कि तुलसी दास रामकथा का जो भी अंश लिख रहे थे, हनुमान जी को पढ़ने के लिए देते जा रहे थे. हनुमान जी प्रभु श्रीराम की महानता पढ़कर गदगद हो जाते थे. लेकिन जब तुलसीदास जी ने उन्हें सुंदरकांड के अंश देना शुरू किया तो सुंदरकांड पढ़कर हनुमान जी तुलसीदास पर क्रोधित हो उठे. वह एक भक्त को स्वामी के सामान महाप्रतापी कैसे लिख सकते थे? कहते हैं कि हनुमान जी ने तुरंत सुंदरकाण्ड की उस प्रति को फाड़ने की कोशिश की. इस पर श्रीराम साक्षात प्रकट होते हुए हनुमान जी से कहा कि सुंदरकाण्ड का यह अध्याय किसी और ने नहीं खुद श्रीराम ने लिखवाया है. क्या मैं कुछ गलत लिख सकता हूं? प्रभु श्रीराम की बात सुनकर हनुमान जी झेंप गये. क्योंकि प्रभु श्रीराम की कोई भी बात काटने का साहस उनमें नहीं था. उन्होंने श्रीराम को प्रणाम करते हुए कहा, हे प्रभु मुझमें इतनी सामर्थ्य कहां कि आपकी बात को गलत साबित कर सकूं. मेरे लिए इससे बड़ा पाप और क्या होगा. मेरे लिए पूरी उम्र यह सुंदरकांड सबसे प्रिय रहेगा.
इसलिए सुंदरकांड के पाठ का इतना ज्यादा माहात्म्य है. जो भी व्यक्ति सुन्दरकाण्ड का पाठ करता है, हनुमान जी उसके हर कष्ट को दूर करने का यत्न करते हैं.
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