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The growing irrelevance of the United Nations

संयुक्त राष्ट्र संघ की बढ़ती अप्रासंगिकता

विदेश मंत्री एस जयशंकर ने संयुक्त राष्ट्र के मौजूदा ढांचे पर वाजिब सवाल उठाए हैं। उनकी इस बात से शायद ही कोई असहमत होगा कि यह ढांचा वर्तमान विश्व का उचित प्रतिनिधित्व नहीं करता। मसलन, इसकी सुरक्षा परिषद में अफ्रीका और लैटिन अमेरिका की स्थायी प्रतिनिधित्व नहीं है। उधर इस वर्ष यह विसंगति भी सामने आएगी कि दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश (यानी भारत) सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य नहीं होगा। जयशंकर ने ऑस्ट्रिया के एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा कि जिन देशों को स्थायी सदस्यता मिली हुई है, वे इसके ‘आनंद’ को दूसरों के साथ बांटना नहीं चाहते। ये तमाम वाजिब बातें हैं, जो दशकों से कही जाती रही हैं। संयुक्त राष्ट्र के ढांचे में सुधार कर इसे अधिक प्रातिनिधिक बनाया जाए, यह मांग भी दशकों पुरानी हो चुकी है। लेकिन ये मांगें कहीं पहुंचती मालूम नहीं पड़तीं। इस बीच भारत, जापान, जर्मनी और ब्राज़ील जैसे देशों की ढांचे में सुधार की मांग को बाकी दुनिया का समर्थन नहीं मिला है, क्योंकि उन हिस्सों में ये धारणा रही है कि ये देश अपने हित को आगे बढ़ाने की मुहिम चला रहे हैं।
ऐसी धारणा बनने के पीछे एक वजह इन देशों का अपना व्यवहार भी रहा है। इस आरोप में दम है कि अपने हित साधने के प्रयास में इन देशों ने व्यापक विश्व हित का बिना ख्याल किए फौरी समीकरण बना लेने में कोई हिचक नहीं दिखाई है। इस बीच अमेरिका ने सवा दो दशक पहले ही खतरे के अनुमान पर एकतरफा कार्रवाई का सिद्धांत न सिर्फ अपना लिया, बल्कि सार्वजनिक रूप से इसकी घोषणा भी कर दी। उसके बाद लगभग हर स्थायी सदस्य देश ने संयुक्त राष्ट्र की अनदेखी करते हुए अपने हित में कदम उठाए। जब स्थायी सदस्य ही संयुक्त राष्ट्र की भूमिका की ऐसी अनदेखी करते रहे हों, इस मंच से किसी समस्या के समाधान में सार्थक हस्तक्षेप की उम्मीद का क्षीण होते जाना लाजिमी ही है। यूक्रेन संकट में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका हाशिये पर चली गई है। ऐसे में जयशंकर के वाजिब सवाल दुनिया का ध्यान शायद ही खींच पाएंगे, क्योंकि इस समय हर विवेकशील व्यक्ति की असली चिंता है संयुक्त राष्ट्र की बढ़ रही अप्रासंगिकता।

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