वस्तुत: भारत में ‘गॉड इंडस्ट्री’ खूब फल-फूल रही है । सवाल यह है कि ऐसा क्यों है? इसके कई कारण हैं। हमारे समाज में दलितों का शोषण एक आम बात है। उनकी बड़ी संख्या गरीबी, अशिक्षा और अभावों से भरपूर है। ऐसे लोगों को अध्यात्म के नाम पर फुसलाना कदरन आसान होता है। बाबाओं को दूसरा लाभ यह है कि बड़े पदों पर बैठे तथा समाज में प्रभाव रखने वाले कुछ लोग भी जब उनके शिष्य बन जाते हैं तो वे उनके माध्यम से अन्य शिष्यों के काम करवाना आरंभ कर देते हैं। शक्तिसंपन्न लोग ऐसा श्रद्धावश करते हैं और जिनका काम हो जाता है वे इसे ‘गुरुजी का प्रसाद’ और ‘भगवद्कृपा’ मानने लग जाते हैं, बिना यह समझे कि यह मात्र सांसारिक ‘ नेटवर्किंग ‘ का कमाल है। ज्योतिषियों और बाबाओं का एक दूसरा वर्ग आभिजात्य वर्ग वाला भी है जो स्वयं पढ़े-लिखे हैं, अंग्रेजी में प्रवचन देते हैं और उद्योगपतियों, नौकरशाहों तथा बड़े राजनीतिज्ञों को ‘आध्यात्मिक शांति’ प्रदान करते हैं। उनके शिष्यों में इतने प्रभावशाली लोग होते हैं कि वे देश की नीतियों तक में परिवर्तन कर सकते हैं। यह भी सांसारिक नेटवर्किंग का ही उदाहरण है। अंधश्रद्धा के इस सिलसिले में पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवी माने जाने वाले लोगों का भी जमघट इसलिए शामिल हो जाता है क्योंकि अक्सर उनका पेशेवर जीवन अत्यंत तनावपूर्ण होता है और इससे मुक्ति के लिए किसी गुरु की शरण में जाकर वे रीचार्ज हो जाते हैं और नई शक्ति के साथ अपने काम पर वापस लौटते हैं। ऐसे बाबाओं के शिष्य समाज के किसी भी वर्ग से हों, जब किसी एक भक्त का कोई काम हो जाता है तो वह श्रद्धावश बाबाजी की प्रशंसा के गीत गाने लग जाता है और उसे देख-देखकर शेष लोग भी बाबा जी के शिष्य बनने लगते हैं और बाबा जी का रुतबा बढ़ता चला जाता है । यह दुनिया सतरंगी है, हर तरह के लोगों से मिलकर बनी है। कुछ लोग बहुत अच्छे हैं और कुछ लोग बहुत अच्छे के वेष में हैं। ऐसे लोगों में संत कहलाने वाले लोगों की भी कमी नहीं है। सतलोक आश्रम के स्वयंभू मुखिया और खुद को कबीर का अवतार बताने वाले रामपाल, बापू के नाम से प्रसिद्ध आसाराम, डेरा सच्चा सौदा के मुखिया गुरमीत राम रहीम के बारे में कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है। पंजाब के नूरमहल में स्थित दिव्य ज्योति जागृति संस्थान के मुखिया आशुतोष की मृत्यु पर ‘उनके उत्तराधिकारियों ने उन्हें ‘समाधि में लीन’ बताना आरंभ कर दिया। इस दौरान आश्रम व आश्रम की संपत्ति पर नियंत्रण को लेकर अदालत में मुकद्दमे भी आए, इसी से पता चलता है कि समाधि में लीन बताने की असलियत क्या है। जरूरी नहीं है. कि ऐसे किसी आश्रम अथवा संस्थान से जुड़ा हर व्यक्ति पाखंडी, झूठा या फरेबी हो, पर यह अवश्य हो सकता है कि वह श्रद्धावश सच्चाई को समझने की कोशिश ही न कर रहा हो ।
बाबाओं की प्रसिद्धि में चिकित्सा व्यवसाय में प्रचलित ‘प्लैसीबो इफैक्ट’ की भी बड़ी भूमिका है। उदाहरणार्थ किसी व्यक्ति की बीमारी प्रकृति प्रदत्त कारणों से या दवाइयों से ठीक हो गई लेकिन उसका श्रेय बाबाजी को मिल गया। प्रसिद्धिप्राप्त ऐसे किसी बाबा के शिष्यों की संख्या जब बढ़ जाती है तो वोट के खरीददार राजनीतिज्ञ उनके सामने शीश नवाने चले आते हैं। राजनीतिज्ञों का समर्थन पाकर ये बाबा लोग और भी निरंकुश हो जाते हैं। कुछ सत्ता के दलाल बन जाते हैं और अपने हित में सत्ता का दुरुपयोग करने लगते हैं। आज ऐसे बाबाओं की कमी नहीं है जो हजारों करोड़ का व्यवसाय करते हैं। अक्सर हम इन संतों के विवादित आचरण से दो-चार होते रहते हैं, परंतु धर्मभीरू भारतीय इन पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं देते। वोट लेने के लिए लगभग हर राजनीतिक दल के नेता इन बाबाओं की शरण में जाते रहते हैं। कांग्रेस, भाजपा, आम आदमी पार्टी आदि में से कोई भी इसका अपवाद नहीं है। यही बाबा जी अगर कानून के शिकंजे में आ जाएं तो सारे राजनीतिज्ञ उनसे पल्ला झाड़ लेते हैं। खेद का विषय यह है कि इन बाबाओं के बड़े- बड़े आश्रमों का जब अवैध निर्माण हो रहा होता है तो पुलिस, प्रशासन, राजनेता और मीडिया में से कोई भी शोर नहीं मचाता, उनकी पोल नहीं खोलता, उन पर कार्रवाई की मांग नहीं करता। उससे भी ज्यादा आश्चर्य का विषय है कि ये बाबा लोग अपनी निजी ‘सेनाएं’ बना लेते हैं, तब भी इनका विरोध नहीं होता और कोई दुर्घटना घट जाने के बाद ही जब इनकी शिकायत होती है तो समाज हरकत में आता है। अपराध होने से पहले अपराध की पृष्ठभूमि बनने दी जाती है । यह हमारे समाज और प्रशासन की सबसे बड़ी कमजोरी है। हम जब तक इस दृष्टिकोण से मुक्ति नहीं पाएंगे, इन कथित संतों के नए-नए अवतार उगते और फलते-फूलते रहेंगे ।
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