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बंद हो लूट का यह खेल

यूरोप के कुछ देशों ने अन्य सभी महाद्वीपों को जिस बुरी तरह लूटा-खसूटा उससे वहां अपार दौलत एकत्र हुई, और वहां के भी चंद लोगों के पास। इंग्लैंड में बड़े भूस्वामियों ने अपने देश के भी छोटे किसानों को बड़े पैमाने पर बेदखल कर दिया, जिससे वे सस्ते मजदूर बनकर नई फैक्ट्रियों में छा गए। यहां मजदूरी की उन दिनों (औद्योगिक क्रांति के आरंभिक वर्षो में) यह हालत थी कि दस वर्ष के बच्चे से पंद्रह घंटे खड़े होकर काम करवाना सामान्य बात समझी जाती थी। बाद में अपने यहां के मजदूरों की स्थिति सुधारने का कुछ कार्य तो इन देशों ने किया, पर उपनिवेशों के प्रति वही अधिकाधिक लूट की प्रवृत्ति बनी रही। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में नई साम्राज्यवादी शक्तियों के आगमन से एक जुल्म और विस्तार का नया दौर आरंभ हुआ और भयंकर हिंसा करते हुए कुछ ही वर्षो में इन शक्तियों ने अफ्रीका के अधिकतर भाग का बंटवारा अपने बीच कर लिया।

इस औपनिवेशिक दौर ने कुछ देशों को बाहरी लूट के आधार पर भौतिक सुख-सुविधाओं और संपत्ति की ऐसी व्यवस्था खड़ी करने दी जिसे बनाए रखने के लिए आज भी अनेक तौर-तरीकों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विषमता और आधिपत्य की प्रवृत्ति को दृढ़ किया जा रहा है। अनेक शक्तिशाली देशों की अर्थव्यवस्था का ढांचा ऐसा है, और उसमें भी विशेषकर सबसे अमीर लोगों की खास स्थिति ऐसी है कि आधिपत्य के आधार पर ही वे विश्व अर्थव्यवस्था को चलाना चाहते हैं। इसी कारण सैन्य बल और अति विध्वंसकारी आधुनिक हथियारों की दृष्टि से कुछ अमीर देशों का वर्चस्व कायम रखना वे जरूरी समझते हैं।

कहीं न कहीं इस आधिपत्य के सिलसिले को रोक कर सहयोग के संबंधों को स्थापित करना जरूरी हो गया है। नजदीकी मानवीय संबंधों से लेकर अंतरराष्ट्रीय संबंधों तक इसकी जरूरत है क्योंकि न्याय और अमन शांति, दोनों के लिए सहयोग के संबंध एक बुनियाद हैं।

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