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दक्षिण अफ्रिका: फिलीस्तीनियों का अकेला सच्चा हमदर्द?

– श्रुति व्यास

सामूहिक नरसंहार (जेनोसाइड) पर एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता हुआ पड़ा है। और संयोग जो इसकी ७५वीं वर्षगाँठ के एक महीने बाद समझौते की सार्थकता, उसके व्यावहारिक इस्तेमाल की परीक्षा का मौका सामने आया है। अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (आईसीजे) के मुख्यालय हेग में इजराइल के गाजा पर हमलों पर सुनवाई शुरू हुई है। दक्षिण अफ्रीका ने विश्व अदालत में इजराइल के खिलाफ नरसंहार का मुकदमा शुरू किया है। गुरूवार को दो दिनों तक चलने वाली सार्वजनिक सुनवाई शुरू हुई है।
दक्षिण अफ्रीका पहला देश है जिसने आईसीजे में इजराइल के खिलाफ प्रकरण दायर किया है।
प्रकरण में कहा गया है कि सात अक्टूबर को हमास के हमले में इजराइलियों के मारे जाने का बदला लेने के लिए इजराइल की हुई सैन्य कार्यवाही में उसने लोगों का सामूहिक नरसंहार किया है। इजराइल द्वारा गाजा में अंधाधुध बमवर्षा की गयी और वहां पानी, भोजन सामग्री और दवाईयों की सप्लाई बलपूर्वक रोकी गयी। इजराइल की कार्यवाही में ०७ अक्टूबर के बाद से अब तक १०,००० बच्चों सहित २३,००० से अधिक लोग मारे जा चुके हैं।
दक्षिण अफ्रीका ने ८४ पेजों में गाजा में बरती गई निर्दयता के विस्तृत साक्ष्य अदालत को दिए हैं और न्यायालय से कहा है कि वह अविलंब घोषणा करे कि इजराइल ने ०७ अक्टूबर के बाद से अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के तहत अपनी जिम्मेदारियों का उल्लंघन किया है।
”ये सारी कारगुजारियां इजराइल की हैं, जो नरसंहार रोकने में विफल रहा और वह जेनोसाईड घोषणापत्र की पालना की बजाय उसका उल्लंघन कर नरसंहार कर रहा है।”
सवाल है भला दक्षिण अफ्रीका ने अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में गुहार क्यों लगाई? दरअसल दक्षिण अफ्रीका हमेशा से फिलिस्तीनियों से जुड़े मुद्दों में उनका समर्थन करता रहा है। दक्षिण अफ्रीका के सत्ताधारी दल अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के गाजा के लोगों, फिलिस्तीन और फिलिस्तीन के मुक्ति आंदोलनों से बहुत पुराने संबंध हैं।इसकी वजह यह है कि अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस स्वयं भी एक समय प्रतिबंधित संगठन था जिसने दक्षिण अफ्रीका की नस्लवादी-रंगभेदी सत्ता के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष किया था।उसे फिलिस्तीनियों की तकलीफों में अपने कष्ट नजर आते हैं।इसके अलावा, दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला पूर्व फिलिस्तीनी नेता यासेर अराफात के नजदीकी मित्र थे और उन्होंने अपने १९९७ के भाषण में यह बहुचर्चित बात कही थी कि जबतक फिलिस्तीनी आजाद नहीं होते तब तक दक्षिण अफ्रीका की आजादी अधूरी रहेगी।दक्षिण अफ्रीका की मौजूदा पहल के पीछे यही नजरिया है।
एक अन्य महत्वपूर्ण कारण यह है कि दक्षिण अफ्रीका में इस साल चुनाव होने हैं और इसलिए सत्ताधारी अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस ज्यादा से ज्यादा समर्थन जुटाना चाहती है।
इजराइल, जो १९४८ के अंतर्राष्ट्रीय नरसंहार विरोधी समझौते का हस्ताक्षरकर्ता है, इन आरोपों को दृढ़ता से नकार रहा है। जब दिसंबर में यह प्रकरण दायर किया गया था तब इजराइल के राष्ट्रपति आईजेक हर्टजोग ने कहा था ”इस दावे से अधिक घटिया और बेतुका और कुछ नहीं हो सकता”। उन्होंने हमास के एजेंडे का जिक्र करते हुए कहा “वह यहूदियों के इकलौते देश इजराइल के सर्वनाश का आव्हान करना चाहता है”। तेल अवीव के साथ एकजुटता का प्रदर्शन करते हुए वाशिंगटन ने भी इन आरोपों को आधारहीन बताते हुए खारिज किया है।संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य होने के नाते अमेरिका सच्चाई को झुठलाने के लिए अपने वीटो का प्रयोग कर सकता है (और संभवत: करेगा भी)। लेकिन इससे न केवल इजराइल और अमेरिका दोनों की प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचेगा बल्कि विश्व राजनीति में उनका प्रभाव भी घटेगा।
दक्षिण अफ्रीका न तो इस युद्ध में शामिल है और ना ही उसे इससे कोई सीधा नुकसान हो रहा है। मगर उसने फिर भी इस मामले में हस्तक्षेप किया है। ऐसे मामले दुर्लभ ज़रूर हैं मगर ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। ऐसी ही मिसाल २०१९ में गाम्बिया ने भी कायम की थी जब उसने आईजीसे में म्यांमार पर रोहिंग्याओं के नरसंहार का आरोप लगाते हुए उसके खिलाफ प्रकरण दायर किया था।
सन २०२१ में न्यायालय ने तात्कालिक तौर पर म्यांमार की सैन्य सरकार को हिदायत दी थी कि वह अपने सैन्य बलों को नरसंहार न करने का निर्देश दे और सभी साक्ष्यों को सुरक्षित रखे।इसके अगले वर्ष, आईसीजे के न्यायाधीशों के पैनल ने १५-१ (केवल एक चीनी जज असहमत थे) के बहुमत से फैसला दिया कि गाम्बिया को नरसंहार समझौते में शामिल ‘एर्गा ओमनेस’ (अर्थात हर देश का व्यापक अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के प्रति कर्तव्य या दायित्व) सिद्धांत के अंतर्गत यह प्रकरण दायर करने का अधिकार था।गाम्बिया द्वारा प्रकरण दायर करने के पहले आईसीजे ने नरसंहार के मुद्दे पर कभी-कभार ही सुनवाई की है। सन् २००७ में न्यायालय ने फैसला सुनाया था कि सर्बिया,१९९५ में बोस्निया एवं हर्जेगोविना के सब्रेनिका में नरसंहार रोकने में विफल रहा।
आज दो युद्धों के चलते दुनिया की व्यवस्था पंगु सी है। यूक्रेन द्वारा रूस के खिलाफ फरवरी २०२२ में दायर प्रकरण लंबित है। और इस बात की प्रबल संभावना है कि इजराइल के खिलाफ दायर यह प्रकरण भी लंबे समय तक चलेगा और फैसला आने में कई साल लग जाएंगे।
लेकिन फिलिस्तीन के समर्थन में अभियान चलाने वालों को उम्मीद है कि अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय गाजा में इजराइल की विध्वंसक सैन्य कार्यवाहियों को संभवत: रूकवा सकेगा।न्यायालय के फैसलों का पालन करना हालांकि अनिवार्य होता है किंतु उसके पास इन्हें लागू करवाने की अधिक शक्ति नहीं है। सन् २००४ में न्यायालय ने एक अबंधनकारी सलाह दी थी कि इजराइल द्वारा कब्जे वाले पश्चिमी किनारे में सुरक्षा अवरोधों का निर्माण अवैधानिक है और इन्हें हटाया जाना चाहिए। पर बीस साल बाद आज भी दीवारें और बाड़ें कायम हैं।

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