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संतोष

साधारणतया मन कहता है, ‘कुछ भी ठीक नहीं है।’ साधारणतया मन खोजता ही रहता है शिकायतें- ‘यह गलत है, वह गलत है।’ साधारणतया मन इनकार करता है: वह ‘न’ कहने वाला होता है, वह ‘नहीं’ सरलता से कह देता है। मन के लिए ‘हां’ कहना बड़ा कठिन है, क्योंकि जब तुम ‘हां’ कहते हो, तो मन ठहर जाता है; तब मन की कोई जरुरत नहीं होती।

क्या तुमने ध्यान दिया है इस बात पर? जब तुम ‘नहीं’ कहते हो, तो मन आगे और आगे सोच सकता है; क्योंकि ‘नहीं’ पर अंत नहीं होता। नहीं के आगे कोई पूर्ण-विराम नहीं है; वह तो एक शुरुआत है। ‘नहीं’ एक शुरुआत है; ‘हां’ अंत है।

जब तुम ‘हां’ कहते हो, तो एक पूर्ण विराम आ जाता है; अब मन के पास सोचने के लिए कुछ नहीं रहता, बड़बड़ाने-कुनमुनाने के लिए, खीझने के लिए, शिकायत करने के लिए कुछ नहीं रहता- कुछ भी नहीं रहता। जब तुम ‘हां’ कहते हो, तो मन ठहर जाता है; और मन का वह ठहरना ही संतोष है। – ओशो

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