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अनुच्छेद ३७० का मकसद जम्मू-कश्मीर

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अनुच्छेद ३७० का मकसद जम्मू-कश्मीर का शेष भारत के साथ एकीकरण था। तब यह प्रश्न उठेगा कि अगर अनुच्छेद ३७० का यह उद्देश्य था, तो फिर अनुच्छेद ३७१ का क्या मकसद है? इस अनुच्छेद की उपधाराओं (ए लेकर जे तक) के जरिए महाराष्ट्र एवं गुजरात, नगालैंड, असम, मणिपुर, आंध्र प्रदेश, सिक्किम, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश और गोवा को कई प्रकार के विशेष अधिकार और संरक्षण मिले हुए हैं। आम समझ में अनुच्छेद ३७० को इसी क्रम में देखा जाता रहा है। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने इसकी अलग व्याख्या सामने रखी है।
अनुच्छेद ३७० को निरस्त करने के बारे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला कई रूपों में असहज करने वाला है। उनमें पहला मुद्दा अनुच्छेद ३७० के बारे में कोर्ट की कुछ टिप्पणियां हैं। मसलन, प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने कहा,
-अनुच्छेद ३७० का मकसद जम्मू-कश्मीर का क्रमिक रूप से शेष भारत के साथ एकीकरण था।
-यह अनुच्छेद सिर्फ एक अस्थायी प्रावधान था (यानी इसे खत्म होना ही था)।
-राष्ट्रपति को अनुच्छेद ३७० (३) के तहत वह प्राप्त अधिकार था, जिसका इस्तेमाल करते हुए वे अनुच्छेद ३७० का अस्तित्व खत्म करने की अधिसूचना जारी सकते थे।
-जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा के भंग हो जाने के बावजूद अनुच्छेद ३७० को निरस्त कर सकने की राष्ट्रपति की शक्ति बनी रही।
ये टिप्पणियां इसलिए असहज करने वाली हैं, क्योंकि ऐतिहासिक संदर्भ की आम समझ यही है कि जम्मू-कश्मीर कुछ खास शर्तों के साथ भारत में शामिल हुआ था। इन शर्तों के तहत उसने अपने कुछ अधिकार केंद्र को सौंपे, जबकि आंतरिक स्वायत्तता संबंधी ज्यादातर अधिकार उसने अपने पास रखे। अनुच्छेद ३७० के तहत भारतीय संविधान में इस व्यवस्था को स्वीकार किया गया था। इसके तहत भारतीय राज्य ने जम्मू-कश्मीर के लोगों को उनकी स्वायत्तता की रक्षा का वचन दिया था। इस वचन की रक्षा भारतीय राज्य-व्यवस्था का ऐतिहासिक दायित्व था।
आम समझ है कि संविधान में इस अनुच्छेद को शामिल करते समय इसे अस्थायी प्रावधान सिर्फ इस अर्थ में कहा गया था कि जब तक जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा अपना संविधान नहीं बना लेती, वहां का प्रशासन और भारतीय संघ से उसका रिश्ता अनुच्छेद ३७० के आधार पर निर्धारित होगा। लेकिन अब कोर्ट ने इसे इस रूप में अस्थायी बताया है कि इसका मकसद जम्मू-कश्मीर का एकीकरण था। स्पष्टत: कोर्ट ने इस पहलू को बिल्कुल अलग नजरिए से देखा है।
जब कोर्ट ने बिल्कुल अलग दृष्टिकोण अपना लिया, तो उसका इस निष्कर्ष पर पहुंचना लाजिमी था कि जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की बिना सहमति के भी अनुच्छेद ३७० को निरस्त किया जा सकता था।
मगर यहां विडंबना यह है कि इसके लिए अपनाए गए माध्यम को खुद कोर्ट ने समस्याग्रस्त माना है। अनुच्छेद ३७० को संशोधित करने के लिए अनुच्छेद ३६७ में सुधार किया गया। इसके लिए संवैधानिक आदेश २७२ जारी किया गया। कोर्ट ने इस आदेश को असंवैधानिक बताया है। मतलब सुप्रीम कोर्ट की यह राय है कि किसी दूसरे अनुच्छेद को संशोधित करने के लिए किसी अन्य अनुच्छेद में बदलाव संविधान के अनुरूप नहीं है। यानी सरकार को जिस अनुच्छेद में संशोधन करना हो, उसे प्रत्यक्ष रूप से उसके लिए ही कदम उठाने चाहिए, ऐसा बैकडोर से नहीं करना चाहिए।
मुद्दा यह है कि अगर वह आदेश असंवैधानिक था, तो उसके परिणामस्वरूप उठाया गया कदम संवैधानिक कैसे हो सकता है?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अनुच्छेद ३७० का मकसद जम्मू-कश्मीर का शेष भारत के साथ एकीकरण था। तब यह प्रश्न उठेगा कि अगर अनुच्छेद ३७० का यह उद्देश्य था, तो फिर अनुच्छेद ३७१ का क्या मकसद है? इस अनुच्छेद की उपधाराओं ए लेकर जे तक के जरिए महाराष्ट्र एवं गुजरात, नगालैंड, असम, मणिपुर, आंध्र प्रदेश, सिक्किम, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश और गोवा को कई प्रकार के विशेष अधिकार और संरक्षण मिले हुए हैं। आम समझ में अनुच्छेद ३७० को इसी क्रम में देखा जाता रहा है। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने इसकी अलग व्याख्या सामने रखी है।
बेशक, अनुच्छेद ३७० के रहते हुए भी इसके जरिए जम्मू-कश्मीर के अनेक संरक्षित अधिकार क्रमिक रूप से केंद्र ने हासिल कर लिए थे। बल्कि अधिकांश विशेषज्ञों का मानना है कि गुजरे दशकों में आगे बढ़ी इस प्रक्रिया के कारण अनुच्छेद ३७० के मूल स्वरूप में काफी हद तक क्षरण हो चुका था। इस हकीकत के बावजूद सच यह है कि जम्मू-कश्मीर की खास राजनीतिक पहचान और वहां के बाशिंदों के मनोवैज्ञानिक संरक्षण के तौर पर इस अनुच्छेद की उपयोगिता बनी हुई थी।
वैसे अगर भारतीय जनता पार्टी के वैचारिक नजरिए से देखें, तो (इस पार्टी के पूर्व संस्करण भारतीय जन संघ की स्थापना के समय से ही) यह अनुच्छेद हमेशा ही एक राजनीतिक मसला था, जिसे भारतीय राज्य अपनी शक्ति के इस्तेमाल से हल कर सकता था। भाजपा नेता हमेशा यह कहते थे कि कांग्रेस नेतृत्व की “कमजोरी” या उसकी “वोट बैंक की सियासत” के कारण यह अनुच्छेद संविधान का हिस्सा बना रहा। उनका हमेशा से वादा था कि जब कभी वे सत्ता में आएंगे, वे इस अनुच्छेद को खत्म कर देंगे। इसलिए भाजपा सरकार ने यह कदम उठाया, तो यह उनकी घोषणाओं के अनुरूप ही था।
भाजपा और उसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विमर्श पर गौर करें, तो यह साफ हो जाता है कि इस अनुच्छेद से उनके विरोध का एक प्रमुख कारण जम्मू-कश्मीर का मुस्लिम बहुल राज्य होना रहा है। दूसरी बात यह रही है कि आरएसएस की विचारधारा भारत के संघीय स्वरूप के साथ सहज कभी नहीं रही। भारत को एकात्मक व्यवस्था का रूप देना उसकी सोच का अभिन्न अंग रहा है। इसलिए अनुच्छेद ३७० को निरस्त करने के साथ वर्तमान भाजपा सरकार ने जम्मू-कश्मीर का दर्जा गिरा कर उसे केंद्र शासित प्रदेश बनाया और इस प्रदेश को एकतरफा ढंग से दो भागों (जम्मू-कश्मीर और लद्दाख) में बांट दिया, तो इसमें उसे कोई वैचारिक या नैतिक अवरोध नजर नहीं आया।
मगर अब हमारे सामने हकीकत यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इन दोनों ही बातों को स्वीकृति दे दी है। कोर्ट के सामने एक बड़ा मुद्दा यह था कि क्या भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के तहत किसी राज्य को केंद्र शासित प्रदेश में बदला जा सकता है? विशेषज्ञों ने ध्यान दिलाया है कि संविधान के अनुच्छेद ३ के तहत किसी राज्य को उसकी सहमति से विभाजित किया जा सकता है, उसके किसी एक हिस्से को केंद्र शासित प्रदेश बनाया जा सकता है, लेकिन पूरे राज्य को केंद्र शासित प्रदेश नहीं बनाया जा सकता। आखिर सुप्रीम कोर्ट इतने बड़े सवाल को अनसुलझा कैसे छोड़ सकता था?
इस मुद्दे पर उसने निर्णय देने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि केंद्र सरकार की तरफ से सुनवाई के दौरान उसे आश्वासन दिया गया कि जम्मू-कश्मीर के पूर्ण राज्य के दर्जे को बहाल कर दिया जाएगा। क्या इसे कोर्ट का विचित्र रुख नहीं कहा जाएगा? इसलिए कि सुप्रीम कोर्ट को निर्णय पांच अगस्त २०१९ को उठाए गए संसद के कदम (यानी राज्य का दर्जा गिराने) की संवैधानिकता पर देना था। इस पर नहीं कि भविष्य में क्या होगा। स्पष्टत: इस मुद्दे पर चुप रह कर सुप्रीम कोर्ट ने भारत के हर राज्य के भविष्य को अधर में लटका दिया है।
इसका अर्थ यह है कि भविष्य में कभी कोई सरकार राष्ट्रपति शासन लागू कर उसी प्रक्रिया से किसी राज्य को विभाजित कर सकती है या उसका दर्जा गिरा सकती है, जैसा कि जम्मू-कश्मीर के मामले में किया गया। मतलब यह कि अब पूरी संघीय व्यवस्था केंद्र की मर्जी पर निर्भर हो गई है।
१९९० के दशक में एसआर बोम्मई मामले में आए फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने संघीय व्यवस्था को भारतीय संविधान के बुनियादी ढांचे का हिस्सा घोषित किया था। केशवानंद भारती से लेकर नौवीं अनुसूची की वैधता से संबंधी मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के बुनियादी ढांचे की रक्षा को अपनी जिम्मेदारी माना था। तो यह प्रश्न उठा है कि जम्मू-कश्मीर का दर्जा गिराने के बारे में दो टूक निर्णय ना देना क्या सुप्रीम कोर्ट का अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोडऩा नहीं है?
ये सारे संवैधानिक सवाल हैं। ये गंभीर प्रश्न हैं। इसलिए कि भारतीय संविधान की जो विचारधारा है और उसका जो बुनियादी ढांचा है, सुप्रीम कोर्ट का ताजा निर्णय उनके अनुरूप मालूम नहीं पड़ता। इसके विपरीत यह निर्णय आरएसएस-भाजपा की विचारधारा पर मुहर लगाता मालूम पड़ता है, जबकि इस विचारधारा के भारतीय संविधान की विचारधारा से बुनियादी मतभेद रहे हैं।
अंतरराष्ट्रीय आम तजुर्बा है कि न्यायपालिका अक्सर हावी राजनीतिक विचारधारा और वर्तमान सत्ताधारी के हितों से प्रभावित एवं प्रेरित होती है। जब कभी किसी मामले में संवैधानिक या कानूनी प्रावधानों का उस विचारधारा या हितों से टकराव होता है, तो उनके अनुरूप निर्णय देने के लिए न्यायपालिकाएं विचित्र किस्म के सिद्धांत अपनाती रही हैं। मसलन, पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने वहां हुए सैनिक तख्ता पलट को वैध ठहराने के लिए जरूरत के सिद्धांत का सहारा लिया था। वैसे इस सिद्धांत का इतिहास काफी पुराना है और इसका उपयोग अनेक मामलों में किया गया है।
इस सिद्धांत की व्याख्या करते हुए १३वीं सदी के ब्रिटिश न्यायविद हेनरी डी ब्रैक्टॉन ने कहा था कि ‘जो कानूनी नहीं है, उसे जरूरत के मुताबिक कानूनी बना दिया जाता है।’ साल १६७२ में एक मामले में कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि जरूरत के लिए अपनाया गया कानून उस रूप में विवाद का निपटारा करता है, जो सामान्य स्थितियों में वैध नहीं है। भारत में यह कहा नहीं गया है, लेकिन हाल के वर्षों में भारतीय न्यायपालिका ने राजनीतिक और वैचारिक पहलू वाले मामलों में जैसा रुख अपनाया है, जैसी टिप्पणियां की हैं, और जिस तरह के निर्णय दिए हैं, उनसे अनेक लोगों के मन में यह प्रश्न उठेगा कि क्या अपने देश में भी आवश्यकता का सिद्धांत को अपना लिया है? क्या ऐसा इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि आज जिस तरह के फैसले दिए जा रहे हैं या जैसी न्यायिक टिप्पणियां की जा रही हैं, वैसा भारतीय संविधान की मूलभूत भावना के अनुरूप करना संभव या तार्किक नहीं है?
यह गौरतलब है कि इमरजेंसी (१९७५-७७) के दौरान न्यायपालिका ने कई विवादास्पद फैसले दिए थे। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने खुद यह स्वीकार किया कि इमरजेंसी के दौरान उसके फैसले नागरिकों के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन में सहायक बने थे। तब संभवत: मामला तत्कालीन सरकार से टकराव लेने में अनिच्छा का था। लेकिन आज ऐसा लगता है कि न्यायपालिका भारतीय राज्य व्यवस्था के वैचारिक रुझान में आए बदलाव को स्वीकार कर रही है। पिछले पांच वर्षों में कई संवैधानिक और नागरिकों के मूल अधिकार संबंधी मामलों में कोर्ट के दृष्टिकोण इस धारणा को मजबूत करते चले गए हैं।
भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में भारतीय राजसत्ता जो स्वरूप ग्रहण कर रही है, उसके बीच उसकी न्याय भावना में परिवर्तन के संकेत मिल रहे हैं। यह न्याय भावना व्यक्तिगत अधिकार, सांस्कृतिक बहुलता, कानून के समक्ष सबकी बराबरी और समता जैसे उसूलों से प्रेरित नहीं है। इसके विपरीत यह आर्थिक-सामाजिक वर्चस्व, सत्ता के समक्ष व्यक्तिगत कर्त्तव्य, और सामाजिक-सांस्कृतिक श्रेणी-क्रम पर आधारित है। प्रश्न यह है कि क्या न्यायपालिका भी धीरे-धीरे राजसत्ता के इस दृष्टिकोण को स्वीकार करती जा रही है?
उससे बड़ा सवाल है कि अगर व्यवहार में ऐसा होगा, तो क्या उस स्थिति में भी यह मानने का कोई आधार पर बचेगा कि भारत २६ जनवरी १९५० को लागू हुए संविधान से चल रहा है? गौरतलब यह है कि वह संविधान एक सामाजिक समझौता है, जिसमें स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान लोकप्रिय हुए उसूलों की झलक थी। इस दस्तावेज के जरिए उन उसूलों का भारतीय समाज की तत्कालीन वर्गीय संचरना से तालमेल बैठाया गया था। तब वादा यह किया गया था कि यह संविधान सबको साथ लेते हुए और सबकी सहमति से तत्कालीन वर्गीय व्यवस्था और सांस्कृतिक मूल्यों में परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त करेगा। यह परिवर्तन न्याय एवं समता की दिशा में होना था।
मगर १९९० का दशक आते-आते ये सारी दिशाएं बदलने लगी थीं। अब विचारणीय यह है कि क्या यह दिशा संविधान की मूलभूत भावना के विपरीत किसी ठोस मुकाम पर पहुंच चुकी है? क्या यह वो मुकाम है, जहां कानून और न्याय की व्याख्याएं मौजूदा सत्ताधारी दल की विचारधारा के मुताबिक की जानी लगी हैं?

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