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Public or private interest?

सार्वजनिक या निजी हित?

बीते हफ्ते भारत में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने राष्ट्रीय ग्रीन हाइड्रोजन मिशन को मंजूरी दी। ग्रीन हाइड्रोजन को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार ने १९,७४४ करोड़ रुपये का बजट मंजूर किया है। सरकारी तौर पर बताया गया कि इस मिशन के १९,७४४ करोड़ रुपये की प्रोत्साहन योजना को मंजूरी दी गई है। इस भाषा का संकेत यह है कि ये उन कंपनियों को सब्सिडी देने के लिए होगी, जो इस क्षेत्र में निवेश करेंगी। इस तरह सेमीकंडक्टर और अन्य क्षेत्रों में निजी क्षेत्र को सार्वजनिक धन देने का जो ट्रेंड हाल में व्यवहार में आया है, वह और आगे बढ़ेगा। अभी तक इस बात के कोई संकेत नहीं हैं कि इस तरह के प्रोत्साहन से लगने वाले उद्यमों पर क्या किसी प्रकार का सार्वजनिक नियंत्रण होता है? यह सीधे तौर पर करदाताओं का धन निजी कंपनियों को देने और उनकी समृद्धि को ही देश का विकास मानने की सोच का हिस्सा है? दुनिया के कई देशों में ऐसी योजनाएं पहले अमल में लाई गई हैं। लेकिन उनसे वहां के आम जन का कोई हित सधा है, इस बात के कोई प्रमाण नहीं हैं।
बहरहाल, ग्रीन हाइड्रोजन मिशन के तहत यह उम्मीद जोड़ी गई है कि भारत २०३० तक ५० लाख टन हाइड्रोजन उत्पादन क्षमता का लक्ष्य हासिल कर लेगा। सरकार का कहना है कि इस फैसले से जीवाश्म ईंधन जैसे कच्चा तेल, कोयला आदि के आयात में एक लाख करोड़ रुपये तक की कमी का अनुमान है। इसके अलावा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में पांच करोड़ टन की कमी आएगी। इस मिशन का मकसद पेट्रोल-डीजल जैसे जीवश्म ईंधन पर निर्भरता खत्म करते हुए देश को स्वच्छ ऊर्जा के उत्पादन का केंद्र बनाना है। योजना सफल होने पर लोगों को महंगे पेट्रोल और डीजल का विकल्प मिल जाएगा। यह बात ठीक है कि ग्रीन हाइड्रोजन एक तरह की स्वच्छ ऊर्जा है। इसे नवीकरणीय ऊर्जा की मदद से इलेक्ट्रोलिसिस के जरिए बनाया जाता है और इसे बनाने की प्रक्रिया पूरी तरह से कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन से मुक्त होती है। मगर प्रश्न यही है कि निजी क्षेत्र की कंपनियों को ऐसे प्रयास में जोडऩे के लिए क्या सब्सिडी देना ही एकमात्र उपाय है?

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