64 Views

केजरीवाल के सामने राजनीतिक संकट

आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल देश भर में चुनाव लड़ते और हारते रहे हैं लेकिन यह उनकी राजनीति का हिस्सा होता है। इससे उनके लिए राजनीतिक मुश्किल खड़ी नहीं होती है, बल्कि कुछ न कुछ फायदा ही होता है। उनकी पार्टी का विस्तार होता है और नए लोग जुड़ते हैं। इसी राजनीति में उन्होंने दो राज्यों-दिल्ली और पंजाब में सरकार बना ली और दो राज्यों- गुजरात व गोवा में इतना वोट हासिल कर लिया कि उनकी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिल गया। इतना सब होने के बावजूद अब उनकी राजनीतिक राह मुश्किल हो रही है। उनकी अपनी गलतियों और कामकाज की कमियों के अलावा देश की राजनीति कुछ इस तरह से बदली है कि उनके लिए आगे की राह मुश्किल हो गई है।
इसके दो-तीन कारण हैं। पहला कारण तो उनके प्रति बनी धारणा का टूटना है। दूसरा कारण यह है कि उनका रामबाण एजेंडा अब सभी पार्टियों ने अपना लिया है। और तीसरा कारण यह है कि जिस कांग्रेस को रिप्लेस करके उसकी जगह लेने की राजनीति वे कर रहे थे वह कांग्रेस मजबूत होने लगी है।
केजरीवाल ने पहले दिल्ली में कांग्रेस की जगह ली। इसके बाद पंजाब में कांग्रेस को रिप्लेस किया। उसके बाद गुजरात में कांग्रेस के वोट में सेंध लगा कर उसको कमजोर किया। गोवा में भी उनकी पार्टी के चुनाव लडऩे और छह फीसदी से ज्यादा वोट लेने का सीधा नुकसान कांग्रेस को हुआ था। ऐसा इसलिए हो रहा था क्योंकि भाजपा और नरेंद्र मोदी के निरंतर प्रचार से कांग्रेस के प्रति आम लोगों में नकारात्मक धारणा बनी थी। इसका लाभ भाजपा के साथ साथ अरविंद केजरीवाल की पार्टी को भी मिल रहा था। पिछले नौ साल में कांग्रेस जितनी कमजोर हुई उसी अनुपात में आम आदमी पार्टी मजबूत हुई है। लेकिन अब स्थितियां बदल गई हैं। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा ने उनके प्रति आम लोगों की धारणा बदली है और उसके बाद हिमाचल प्रदेश व कर्नाटक में कांग्रेस की जीत ने कांग्रेस को वापस मुकाबले में ला दिया है। अब भाजपा के लिए भी कांग्रेस चुनौती है तो आम आदमी पार्टी के लिए भी है।
केजरीवाल ने अपनी राजनीति पोस्ट आइडियोलॉजी पार्टी के तौर पर की थी। उनकी पार्टी की विचारधारा राजनीति की टेक्स्ट बुक परिभाषा से मैच नहीं करती है। तभी उन्होंने दक्षिणपंथ की ओर रूझान दिखाते हुए गवर्नेंस को अपनी पार्टी का एकमात्र एजेंडा बनाया। गवर्नेंस से उनका मतलब सिर्फ इतना है कि वे सरकारी खजाने से कुछ पैसा निकाल कर एक निश्चित मतदाता समूह को ढेर सारी चीजें और सेवाएं मुफ्त में देंगे। उन्होंने दिल्ली में इस दांव को बहुत अच्छे तरीके से आजमाया। निचले तबके और निम्न मध्य वर्ग के लिए पानी, बिजली फ्री कर दिया। मुफ्त वाई-फाई और महिलाओं को बसों में मुफ्त की यात्रा शुरू कराई। स्कूलों और अस्पतालों का रंग-रोगन करके प्रचार के जरिए यह धारणा बनाई कि कायाकल्प कर दिया। झुग्गियों में अवैध निर्माण की खुली छूट दे दी और दिल्ली में कहीं भी रेहड़ी-पटरी लगाने का रास्ता खोल दिया।
मुश्किल यह कि अब सभी पार्टियों ने इस दांव को अपना लिया है। अब कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियां भी चुनाव में दिल खोल कर मुफ्त में वस्तुएं और सेवाएं बांटने का ऐलान करती हैं। केजरीवाल ने पंजाब में मुफ्त बिजली, पानी के साथ साथ महिलाओं को एक एक हजार रुपए देने का वादा किया था अब कांग्रेस डेढ़ से ढाई हजार रुपए तक महिलाओं को देने का ऐलान कर चुकी। मध्य प्रदेश में डेढ़ हजार तो तेलंगाना में ढाई हजार रुपए नकद देने की घोषणा हुई है। इसके अलावा मुफ्त अनाज, मुफ्त बिजली, पानी, मुफ्त बस यात्रा, स्कूटी, लैपटॉप, स्मार्ट फोन आदि सब कुछ मुफ्त में बांटने का ऐलान किया जा रहा है। सो, केजरीवाल की एक्सक्लूसिविटी खत्म हो गई। जब सारी पार्टियां उनका राजनीतिक दांव अपना रही थीं तो वे अपने लिए कोई नया दांव नहीं सोच पाए।
उलटे दिल्ली और पंजाब में उनके कामकाज की पोल खुल गई। उन्होंने दिल्ली की हवा और पानी की सफाई का वादा किया था। अपने कामकाज के पहले सात साल तक वे यह बहाना बनाते रहे कि पंजाब में अकाली दल और कांग्रेस की सरकारें पराली जलाना नहीं रोक पाईं इसलिए दिल्ली में प्रदूषण बढ़ रहा है और वे कुछ नहीं कर पा रहे हैं। लेकिन २०२२ में उनकी पार्टी की पंजाब में सरकार बन गई और उसके बाद लगातार दूसरी सर्दियां आ गई हैं, फिर भी दिल्ली में प्रदूषण कम नहीं हुआ। पंजाब में पराली जलाए जाने से दिल्ली में लगातार दूसरे नवंबर में लोगों का सांस लेना दूभर हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने इसे लेकर दिल्ली और पंजाब सरकार को फटकार लगाई तो वे हरियाणा और उत्तर प्रदेश पर दोष मढऩे लगे।इसी तरह यमुना की सफाई के मामले में भी उनके वादों की पोल खुली। इस साल भी छठ के मौके पर यमुना पहले की तरह प्रदूषित रही और लोगों ने झाग वाले पानी में खड़े होकर पूजा की। दिल्ली में वायु प्रदूषण बढऩे पर सोशल मीडिया में यह मीम बहुत लोकप्रिय हुआ कि आठ साल पहले जब केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बने थे तो वे खांस रहे थे और दिल्ली के लोग ठीक थे, आज दिल्ली के लोग खांस रहे हैं और केजरीवाल का मफलर गायब हो गया है। स्कूलों में पढ़ाई लिखाई और स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता की भी पोल खुल गई है।
इस बीच धारणा के स्तर पर भी उनको बड़ा झटका लगा है। उन्होंने खुद अपने बारे में दो तरह की धारणा बनाई थी। पहली यह कि वे और उनकी पार्टी कट्टर ईमानदार पार्टी हैं और दूसरी यह कि वे आम आदमी की तरह रहने वाले हैं। ये दोनों धारणाएं चकनाचूर हो गई हैं। दिल्ली की शराब नीति घोटाले में जांच की आंच उन तक पहुंची है। उनके उप मुख्यमंत्री रहे मनीष सिसोदिया गिरफ्तार होकर आठ महीने से ज्यादा समय से जेल में हैं और अक्टूबर के पहले हफ्ते में उनके राज्यसभा सांसद संजय सिंह भी गिरफ्तार हो गए। उसके बाद प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी ने उनको भी नोटिस जारी किया। ईडी की नोटिस के बाद केजरीवाल ने एक बार फिर काठ की हांडी चुल्हे पर चढ़ाने की कोशिश की लेकिन कामयाबी नहीं मिल रही है। वे दिल्ली में जनमत संग्रह करा रहे हैं कि अगर ईडी उनको गिरफ्तार करती है तो उनको मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना चाहिए या नहीं? हालांकि उनकी पार्टी पहले बैठक करके ऐलान कर चुकी है कि वे गिरफ्तार हुए तब भी मुख्यमंत्री बने रहेंगे और तिहाड़ जेल से ही सरकार चलाएंगे। फिर घर घर जाकर लोगों से पूछने की नौटंकी का ज्यादा असर नहीं हो रहा है।
दूसरी धारणा आम आदमी होने की थी, जो ५० करोड़ रुपए में घर का रेनोवेशन कराने की खबरों ने तोड़ दिया। केजरीवाल ने ऐलान किया था कि उनकी पार्टी के नेता बंगलों में नहीं रहेंगे, बड़ी गाडिय़ों में नहीं चलेगें, सुरक्षा नहीं लेंगे लेकिन दो छोटे छोटे राज्यों में सरकार बनाते ही केजरीवाल का असली चेहरा सामने आ गया। उन्होंने कई बंगलों को मिला कर अपने लिए एक बंगला बनाया, जिसके रेनोवेशन पर करीब ५० करोड़ रुपए खर्च होने की खबर आई है, जिसकी जांच हो रही है। वे भारी भरकम सुरक्षा में चलते हैं और जब दिल्ली की सड़कों पर निकलते हैं तो उनके लिए रूट लगता है। उनके सारे मंत्री बड़े बंगलों में रहते हैं। पहली बार के राज्यसभा सांसद राघव चड्ढा इस बात की जी-तोड़ लड़ाई लड़ रहे हैं कि उनको टाइप सात के बंगले में ही रहना है। चड्ढा सहित कई नेता दिल्ली और पंजाब दोनों की सुरक्षा लेकर घूम रहे हैं। केजरीवाल ने राज्यसभा के अपने १० सांसदों में से कम सात सांसद अराजनीतिक लोगों को या बड़े कारोबारियों को बनाया है। सो, उनके सबसे अलग होने का जो प्रचार था उसकी भी पोल खुल गई है और यह साबित हो गया है कि वे भी बाकी नेताओं की ही तरह हैं।

Scroll to Top