– अजय दीक्षित
केन्द्र सरकार लगातार दावे करती रही। है कि नक्सलवाद और माओवाद जैसे चरमपंथी संगठनों को प्रभावहीन कर दिया गया है लेकिन छत्तीसगढ़ के वीजापुर जिले में बीते मंगलवार की घटना ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया है कि यहां इन संगठनों की जड़ें जमीं हुई हैं। यहां माओवादियों के साथ मुठभेड़ के दौरान तीन सुरक्षाकर्मी शहीद हो गये और १५ अन्य घायल हो गये। सुरक्षाकर्मियों की जवाबी कार्रवाई में ६ माओवादी भी मारे
गये।
यह मुठभेड़ बीजापुर और सुकमा जिले की सीमा पर स्थित टेकलगुडेम गांव के पास उस समय हुई जव कोबरा कमांडो की २०१ बटालियन और सीआरपीएफ की १५० बटालियन का संयुक्त दल तलाशी अभियान चला रहा था।
लोकतंत्र में नक्सलवाद और माओवाद जैसी हिंसक विचारधारा का कोई स्थान नहीं है। इसलिए केन्द्र की सरकार माओवाद से उत्पन्न गंभीर चुनौतियों से निपटने के लिये प्रभावी कदम उठा रही है। अगर पिछले १० वर्ष की घटनाओं को देखा जाये तो माओवादी घटनाओं में काफी गिरावट आई है लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि इस पर पूरी तरह से नियंत्रण पा लिया गया है। इस समस्या से निपटने के लिए सरकार ने दो तरह की रणनीति बनाई है। पहली, माओवादियों के खिलाफ सघन अभियान चलाना और दूसरी, इससे प्रभावित इलाकों में द्रुत गति से विकास करना।
अभी पिछले दिनों ही केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि देश अगले ३ साल में माओवाद और नक्सलवाद की समस्या से मुक्त हो जायेगा। माओवाद और नक्सलवादी आन्दोलन के उभार के कारणों की पड़ताल करें तो यह तथ्य सामने आता है कि कम्युनिस्ट खेमे आदिवासियों के मन में यह भाव स्थापित करने में सफल रहे हैं कि उनका लगातार शोषण हो रहा है। उन्हें उनके जल, जंगल और जमीन से वंचित किया जा रहा है। ऐसे में उनको इसका प्रतिरोध करना चाहिए। इस बात के आलोक में यह कहा जा सकता है कि जब तक आदिवासियों के मन से यह भाव समाप्त नहीं किया जायेगा तब तक नक्सल समस्या से पूरी तरह मुक्त नहीं हुआ जा सकता। इसलिए आदिवासी क्षेत्रों में केवल आर्थिक विकास ही जरूरी नहीं है, बल्कि इसके साथ-साथ सांस्कृतिक विकास भी आवश्यक है।
नक्सल समस्या का सम्बन्ध आदिवासियों की अस्मिता से भी जुड़ा हुआ है। उन्हें यह महसूस होना चाहिये कि लोकतंत्र में उनकी अस्मिता का सम्मान हो रहा है, और लोकतांत्रिक प्रक्रिया पूरी तरह पारदर्शी और आदिवासी समाज के लिए हितकारी है।