82 Views

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।

कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥
– श्रीमद्भागवत गीता

अर्थात् – इस श्लोक में बताया जा रहा है कि इस धरती पर ऐसा कोई नहीं जो हर पल कोई न कोई कर्म न कर रहा हो। प्रकृति तीनों गुणों के आधार पर प्राणी को अपना कर्म करने के लिए विवश करती है।

आज कुछ लोग ये मानते हैं कि कर्म करने का अर्थ है सिर्फ व्यापार या नौकरी वाला कर्म, न कि रोज़मर्रा के काम जैसे खाना, पीना, सोना, जागना, सोचना आदि, इसलिए जब लोग अपना व्यापार या नौकरी छोड़ देते हैं तो उन्हें लगता है वो अब कोई कर्म नहीं कर रहे। श्री कृष्ण कहते हैं कि व्यक्ति अपने मन, अपने शरीर और अपनी वाणी से जो भी कहे या करें वो सब कर्म के समान ही हैं।

वो अर्जुन से कह रहे हैं कि व्यक्ति कभी भी एक पल के लिए भी पूर्ण रूप से निष्क्रिय नहीं हो सकता है। यदि कोई सिर्फ बैठा है तो वो भी एक क्रिया कर रहा है। यदि को सो रहा है तो उसका मन सपने देखने की क्रिया करने में व्यस्त है। जब व्यक्ति गहरी नींद में सो जाता है तब भी उसका दिल और उसके अंग काम कर रहे होते हैं। इन सभी बातों से ये बात स्पष्ट है मनुष्य पूर्णतया कर्महीन कभी नहीं होता। उनकी बुद्धि, उसका मन, उसका शरीर कार्य करने के लिए मजबूर हैं।

Scroll to Top