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कंट्री में मोदी,स्टेट में भी मोदी!

जनादेश आ गया है। लोगों ने अपने मन की बात बता दी है। राजस्थान से लेकर मध्यप्रदेश और वहां से लेकर छत्तीसगढ़ तक सब तरफ मोदी ही मोदी हैं। प्रदेशों के चुनावों में भी मोदी! क्या यह अजीब है? क्या यह चौकाने वाला है?
इन तीनों राज्यों में – चाहे वह शहर हो या गांव, चाहे वोट देने वाला युवा हो या बुजुर्ग, महिला हो या पुरूष – सबके दिल-दिमाग में एक ही चेहरा है, वह जो ‘इंडिया’ को ‘भारत’ बना सकता है।इसलिए ‘प्रधानमंत्री हो तो मोदी हो’।अगले आमचुनाव के ठीक पांच महीने पहले लोगों ने यह साफ कर दिया है कि कमल ही उनकी पहली और आखिरी पसंद है। विधानसभा चुनाव में भी उनके मन में कोई दुविधा नहीं थी। पहले कहा जाता था ‘‘देश में मोदी, प्रदेश में हमारा अपना”। परंतु इन विधानसभा चुनावों से यह साफ हो गया है कि राज्य और राष्ट्रीय चुनावों में अब कोई भेद नहीं रहा गया है। स्थानीय चेहरों और स्थानीय मुद्दों का कोई महत्व ही नहीं है। मध्यप्रदेश में यदि भाजपा १६० से ज्यादा सीटें जीत सकी है तो उसका श्रेय पूरी तरह से शिवराज को नहीं मिलेगा। यह, दरअसल, नरेन्द्र मोदी की जीत है। राजस्थान में यदि भाजपा सत्ता में आई है तो उसका कारण अशोक गहलोत सरकार के खिलाफ सत्ता-विरोधी लहर नहीं है। उसका कारण है मोदी का जलवा। सभी जातियों के लोग मोदी पर आस्थावान हैं।
भाजपा ने यह जब स्पष्ट किया कि तीनों राज्यों में वह मोदी के चेहरे और उनकी गारंटी पर चुनाव लड़ेगी तो कई लोगों को यह बहुत बड़ा जुआ लगा। शायद यही कारण था कि एग्जिट पोल्स के नतीजे परस्पर विरोधाभासी थे। कांग्रेस ने कोई राष्ट्रीय चेहरा प्रस्तुत नहीं किया और उसने तीनों राज्यों में अलग-अलग क्षत्रपों को अपना चेहरा बनाया। मध्यप्रदेश में चुनाव कमलनाथ बनाम नरेन्द्र मोदी था, राजस्थान में अशोक गहलोत बनाम नरेन्द्र मोदी और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल बनाम नरेन्द्र मोदी।
और अब भाजपा को जितनी सीटें मिली हैं उससे साबित है कि मोदी-शाह का दांव एकदम सही पड़ा। दूसरी बात यह है कि जो कारक और कारण मोदी के खिलाफ थे उन्हें जनता ने नजरअंदाज कर दिया। मोदी के चेहरे के सामने छत्तीसगढ़ की धान राजनीति और मुफ्त रेवडिय़ां फीकी पड़ गईं। मध्यप्रदेश में न तो शिवराज के खिलाफ सत्ता-विरोधी लहर का कुछ असर दिखा और ना ही मामा की लाड़ली बहना योजना का। महत्व केवल मोदी के चेहरे का था। और यह सन् २०१४ के चुनावों के बाद से लगातार होता आ रहा है। मोदी के चेहरे के बल पर भाजपा के कई ऐसे उम्मीदवार भी चुनाव जीत गए हैं जिन्हें उनके पड़ोसी तक नहीं जानते थे।
तो क्या मीडिया गलत सिद्ध हुआ? क्या वह जनता की नब्ज नहीं पकड़ पाया? दक्षिणपंथी मीडिया ने जहां दक्षिणपंथी नैरेटिव चलाया वहीं वामपंथ की ओर झुके मीडिया ने अपने ढंग से चीजों को प्रस्तुत किया। वहीं मुझे पहले दिन से चुनाव में टक्कर कड़ी लगी। छत्तीसगढ से चुनाव रिपोर्टिग शुरू करते हुए ६ नवंबर की पहली रिपोर्ट में मेरा हैडिंग दिया था – विधानसभा चुनाव २०२३: जैसा माना जा रहा वैसा नहीं माहौल!- छत्तीसगढ़ में लोगों का चुनावी मूड वैसा नहीं है जैसा राज्य के बाहर और खासकर दिल्ली में बैठे लोग मान कर चल रहे (याकि कांग्रेस की जीत) हैं और परिणाम कुछ भी हो सकता है। कांग्रेस के पक्ष में सब कुछ फिर भी मुकाबला!
रायपुर।(७ नवंबर), कसही (पाटन) तो “भूपेश बघेल की काशी। (८ नवंबर) “भूपेश बघेल के लिए क्यों कड़ा मुकाबला? (९ नवंबर)। भोपाल: ‘इलेक्शन टाईट’और कंफ्यूजन!-मध्यप्रदेश की राजधानी पहुँचते ही जो पहली बात सुनाई पड़ती है वह है ‘इलेक्शन टाईट है’। या राजस्थान में सचिन में वह जोश नहीं और “गहलोत तुझसे बैर नहीं, मंत्रियों की खैर नहीं।”
सो पहले छत्तीसगढ़ हो या आखिर में राजस्थान – इन दोनों राज्यों की यात्रा के पहले ही दिन मुझे यह समझ में आ गया था कि मुकाबला कड़ा है। मध्यप्रदेश में मसला सिर्फ चीजों को देखने के तरीके का था। बदलाव की बात हो रही थी मगर शिवराज को देखते-देखते लोग थक चुके हैं, ऐसा भी नहीं लग रहा था और ना ही कमलनाथ की जय-जयकार हो रही थी। बात सिर्फ चीजों को देखने के तरीके की थी।
कुल मिलाकर हिन्दी पट्टी में भाजपा की इस शानदार जीत से एक बात तो साफ है कि लोगों ने केवल और केवल मोदी का चेहरा देखकर वोट दिया।
सवाल है अब मोदी से लोगों की क्या उम्मीद होगी?मुझे लगता है कि लोग चाहेंगे कि उनके राज्यों का शासन चलाने के लिए मोदी सही व्यक्ति चुनें – उसी तरह का शासन चलाने के लिए जैसा वे दिल्ली से चला रहे हैं। यह बात मुझे राजस्थान में लोगों से बात करते हुए ज्यादा समझ में आई। जैसा कि मैंने अपनी चुनावी रिपोर्टों में लिखा था भाजपा के समर्थकों और प्रशंसकों को मुख्यमंत्री का चेहरा न होने से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। अशोक गहलोत कांग्रेस के मुख्यमंत्री फेस थे मगर वसुंधरा राजे या और कोई भी भाजपा का मुख्यमंत्री फेस नहीं था। जनता को लग रहाथा कि चुनाव जीतने के बाद मोदी अपने जैसे किसी दृढ़ व्यक्ति, किसी योगी-नुमा नेता को मुख्यमंत्री के पद पर बिठाएंगे। फिर राममंदिर और सनातन धर्म तो था ही। छत्तीसगढ़ की आदिवासी पट्टी में भाजपा की जीत से साबित है कि सनातन धर्म ने आदिवासी इलाके में भी एन्ट्री ले ली है। छत्तीसगढ़ में न कोई क्षेत्रीय नेतृत्व था और न कोई क्षेत्रीय ताकत, ऐसे हालात में भाजपा ने इस राज्य को भूपेश बघेल से छीना है। भूपेश बघेल एक भले आदमी हैं जिन्होंने कांग्रेस द्वारा चुनाव से पहले किए गए सभी वायदों को पूरा किया था। जैसा कि मैंने १० नवंबर को छत्तीसगढ़ से भेजी गई अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि यहां लोगों का सोचना है कि ‘स्टेट में बघेल, कन्ट्री में मोदी’। मगर नतीजों से जाहिर है कि दरअसल लोग यह सोच रहे थे कि स्टेट में भी मोदी, देश में भी मोदी।
जहां तक कांग्रेस का सवाल है, हिन्दी पट्टी में अब उसकी पूछ-परख बहुत कम हो जाएगी। परंतु कर्नाटक के बाद तेलंगाना में कांग्रेस की जीत से एक नया नैरेटिव शुरू हो सकता है। अखाड़ा तैयार है। अगले चार महीने में लड़ाई उत्तर बनाम दक्षिण की होगी। जिस तरह २०२३ के विधानसभा चुनाव दिलचस्प थे उसी तरह २०२४ के लोकसभा चुनाव भी दिलचस्प होंगें। मगर यह तय है कि नए भारत में मोदी का चेहरा ही चुनाव जितवाएगा भी और हरवाएगा भी।

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