हिन्दी में एक मुहावरा है:- “अगर मन चंगा, तो कठौती मे गंगा”। यह मुहावरा संत रविदास जी के जीवन से लिया गया है।
कहा जाता है कि संत कबीर के गुरू भाई संत रविदास जी अपनी फूस की कुटिया में चप्पल-जूतें बनाने का कार्य करते-करते, भक्तिभाव से सिद्ध पुरूष हो गये थे। इनके सम्बन्ध में एक कथा प्रचलित है कि:-
(१) एक बार किसी पर्व पर एक ब्राह्मण गंगा स्नान के लिए जाते समय संत रविदास जी के पास अपनी टूटी हई जूती ठीक कराने पहुँचा। जूती ठीक होने पर एक पैसा मजदूरी देते हुए वह ब्राह्मण बोला – ‘भगतजी, चलिए गंगा नहाकर आया जाए।’ इसपर रविदास जी मुस्कुरा कर बोले – पंडितजी, मैं तो गंगामाई का दर्शन रोज अपनी इस चमड़ा धोने वाली कठौती में ही करता हूँ, क्योंकि मेरा मानना है कि “अगर मन चंगा, तो कठौती में गंगा”। लेकिन फिर भी पंडितजी यह एक पैसा आप मेरी ओर से गंगामाई को भेंट कर दीजियेगा।
ब्राह्मण फिर अकेले ही गंगा स्नान के लिए गये। और उन्होने जब रविदास जी का वह एक पैसा गंगामाई को चढ़ाया, तब गंगामाई ने हाथ बढ़ाकर वह भेंट स्वीकार किया, और एक बहुमूल्य रत्नजड़ित सोने का कंगन देते हुए कहा – ‘यह कंगन रविदास को दे देना’।
सोने का अद्भुत कंगन देखकर पंडितजी के मन में बेईमानी समा गई, और पंडितजी ने वह कंगन एक जौहरी को बेच दिया। बाद में वह अद्भुत कंगन राजा ने खरीद कर अपनी रानी को गिफ्ट किया। रानी को वह कंगन बहुत पसंद आया, उन्होंने राजा से वैसा ही दूसरा कंगन दिलाने की हठ कर बैठी।
तब राजा ने जौहरी को और फिर कंगन बेचनें वाले पंडितजी को दरबार में बुलाकर वैसा ही दूसरा कंगन लाने का हुक्म दिया। और कंगन नहीं लाने पर दंड भुगतने की सजा सुनाई।
इस पर पंडितजी डर गये और जौहरी को लेकर संत रविदास जी के कुटिया पहुँचकर पूरी घटना बताकर, वैसा ही दूसरा कंगन गंगामाई से दिलाने की प्रार्थना करने लगे। जिससे उनकी जान बच सके।
तब संत रविदास जी ने पंडितजी की ओर क्षमापूर्ण दृष्टि से देखा और ध्यानमग्न हो गए। फिर उन्होंने चमड़ा भिगोने वाली अपनी कठौती में हाथ डाला, और हुबहू वैसा ही बहुमूल्य रत्नजड़ित सोने का कंगन पानी में से निकालकर पंडितजी के हाथ में दे दिया।
यह देखकर पंडितजी और जौहरी संत रविदास जी की जयकार कर उठे।
तभी से यह मुहावरा चल निकला कि: “अगर मन चंगा, तो कठौती में गंगा।”
(२) चौदहवीं शताब्दी के प्रमुख संत और स्वामी रामानंद के प्रमुख शिष्य रविदास जी कबीरदास जी के समकालीन और गुरूभाई थे। संत रविदास जी का जन्म वाराणसी के मंडूर (मंडुवा डीह) ग्राम में हुआ था, जो कबीरदास के जन्मस्थली लहरतारा के समीप ही है।
(३) चित्तौड़ की मीराबाई ने संत रविदास जी को अपना गुरू बनाया, और उनको चित्तौड़ में आमंत्रित किया। चित्तौड़ में ही १५१ वर्ष की आयु में संत रविदासजी ने शरीर का त्याग किया।



