141 Views
it's a matter of objection

एतराज़ की बात तो है

जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर को राज्यपाल बनाए जाना बेनज़ीर घटना तो नहीं है, फिर भी उस पर जताए जा रहे एतराज़ का संदर्भ है। बल्कि यह कहा जाएगा कि ये आपत्तियां वाजिब हैं। जस्टिस नजीर इसी वर्ष चार जनवरी को सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हुए। वे अयोध्या भूमि विवाद और तीन तलाक जैसे कई बड़े न्यायिक फैसलों का हिस्सा रहे। इन फैसलों से सत्ता पक्ष के नैरेटिव की पुष्टि हुई थी। अब उनके रिटायरमेंट के छह हफ्ते बाद ही उन्हें आंध्र प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया गया है। तो लाज़िमी है कि विपक्ष ने उन पर सवाल उठाए हैं। कांग्रेस ने इस सिलसिले में पूर्व कानून मंत्री और दिवंगत भाजपा नेता अरुण जेटली के पुराने बयान का हवाला दिया है। जेटली ने २०१३ में कहा था कि सेवानिवृत्ति से पहले के निर्णय के निर्णय से अगर सेवानिवृत्ति के बाद नौकरी मिले, तो न्यायपालिका के लिए यह खतरनाक है। गौरतलब है कि रंजन गोगोई के बाद यह दूसरी नियुक्ति है। गोगोई के रिटायर होने के बाद उन्हें राज्यसभा का सदस्य बनाया गया था। अयोध्या फैसला देने वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच के वे अध्यक्ष थे।
उधर जस्टिस नज़ीर के नेतृत्व वाली संविधान पीठ ने २०१६ की नोटबंदी प्रक्रिया को सही ठहराया था। उन्होंने यह भी घोषणा की थी कि मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और नेताओं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अतिरिक्त प्रतिबंध लगाने की कोई जरूरत नहीं है। इसलिए यह प्रश्न उठा है कि ऐसे फैसलों और टिप्पणियों से सत्ताधारी दल प्रसन्न हुआ और अब उसने उन्हें पुरस्कृत किया है? एक समय अधिकारियों के रिटायरमेंट उनकी किसी सरकारी नियुक्ति के पहले कूलिंग पीरियड तय करने की मांग उठी थी। बल्कि अपेक्षा यह भी रही है कि सरकारी पद से हटने के बाद किसी निजी कंपनी को ज्वाइन करने से पहले भी एक कूलिंग पीरियड होना चाहिए। तर्क यह है कि सरकारी पद पर रहते हुए अधिकारी भविष्य में पद पाने की उम्मीद में किसी कंपनी या राजनीतिक दल को फायदा पहुंचाने वाला निर्णय ले सकता है। ऐसी प्रवृत्तियों को रोकने के उपाय होने चाहिए। लेकिन अब ऐसा लगता है कि ऐसी अपेक्षाएं हाशिये पर पहुंचा दी गई हैं।

Scroll to Top