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India's foreign policy is out of common sense

सामान्य समझ से बाहर है भारत की विदेश नीति

अगस्त २०२१ में जब तालिबान का काबुल पर कब्जा हुआ था, तो खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस घटना पर चिंता जताई थी। लेकिन उसी तालिबान को भारत ट्रेनिंग देने को तैयार हो गया, तो इसे एक पहेली ही कहा जा सकता है।
मीडिया रिपोर्टों में बताया गया है कि विदेश मंत्रालय के विभाग “इंडियन टेक्निकल एंड इकोनॉमिक कोऑपरेशन” के एक ट्रेनिंग कोर्स में तालिबान के सदस्य हिस्सा लेंगे। यह कोर्स चार दिनों का है और मंत्रालय इसे आईआईएम कोझिकोड के जरिए आयोजित करवा रहा है। यह ऑनलाइन कोर्स है, इसलिए इसमें भाग लेने वालों को भारत आने की जरूरत नहीं है। विशेष रूप से विदेशी प्रतिभागियों के लिए डिजाइन किए गए इस कोर्स का शीर्षक है- “इमर्सिंग विथ इंडियन थॉट्स”। भारतीय चिंतन परंपरा की विदेशियों को जानकारी दी जाए, यह एक अच्छा मकसद है। लेकिन तालिबान से यह अपेक्षा रखना कि वे परंपरागत भारतीय संस्कृति के मुरीद हो जाएंगे, कुछ ज्यादा आशा करना होगा।
अगर यह फैसला भारतीय हितों को आगे बढ़ाने के मकसद से किया गया है, तो यही कहा जाएगा कि वर्तमान सरकार भारत के हितों को अति संकरे रूप से परिभाषित कर रही है। दरअसल, इस खबर पर उन अफगान छात्रों ने भी अफसोस जताया है जो भारतीय संस्थानों में अलग-अलग कोर्स कर रहे थे, लेकिन तालिबान के सत्ता में लौट आने के बाद हुई उथल-पुथल के कारण उनकी पढ़ाई रुक गई। करीब ३,००० अफगान छात्र २०२१ में गर्मी की छुट्टियों में अफगानिस्तान गए थे लेकिन वो अभी तक वापस नहीं लौट सके हैं। बेहतर होता कि भारत सरकार पहले उन छात्रों के हितों की चिंता करती, जो मौटे तौर पर तालिबान की कट्टरपंथी सोच से इत्तेफाक नहीं रखते। इस निर्णय से उन छात्रों में अगर खुद को असहाय छोड़ दिए जाने का भाव पैदा होगा, तो इसे जायज ही कहा जाएगा। गौरतलब है कि विदेश नीति संबंधी अस्पष्टता की यह कोई पहली मिसाल नहीं है। लेकिन यह बेहद हैरत में डालने वाला निर्णय है।

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