गुरोर्यत्र परीवादो निंदा वापिप्रवर्तते । कर्णौ तत्र विधातव्यो गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः ॥
भावार्थ :
जहाँ गुरु की निंदा होती है वहाँ उसका विरोध करना चाहिए । यदि यह संभव न हो तो कान बंद करके बैठना चाहिए; और (यदि) वह भी संभव न हो तो वहाँ से उठकर दूसरे स्थान पर चले जाना चाहिए ।