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निर्यात वाली अर्थव्यवस्था से बनेगी मजबूत मुद्रा

साल २०२३ में डी-डॉलराइजेशन- यानी अंतरराष्ट्रीय व्यापार में आपसी मुद्राओं में भुगतान- एक खास ट्रेंड रहा। आंकड़ों के मुताबिक इस वर्ष कच्चे तेल के हुए कुल २० प्रतिशत निर्यात का भुगतान डॉलर के अलावा किसी मुद्रा में हुआ। यह बड़ा आंकड़ा है, क्योंकि दूसरे विश्व युद्ध के बाद से जीवाश्म ऊर्जा के अंतरराष्ट्रीय कारोबार की मुख्य मुद्रा डॉलर ही था। २०२२ से डॉलर से जुदा होने के तेजी से बढ़े रुझान के बीच भारत ने भी अपनी मुद्रा- रुपये- को अंतरराष्ट्रीय स्वरूप देने की नियोजित पहल की है। लगभग दो दर्जन देशों के साथ ऐसी व्यवस्था हो चुकी है, जिसके तहत आयात-निर्यात का भुगतान अपनी-अपनी मुद्राओं में करना संभव हो गया है।
इस वर्ष यह प्रयास एक खास मुकाम पर पहुंचा, जब भारत ने पहली बार संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) को तेल के बदले में रुपये में भुगतान किया। यूएई को भुगतान से उम्मीद जगी कि नए वैश्विक रुझान का लाभ भारतीय रुपये को भी मिलेगा। लेकिन यूएई को भुगतान के बाद बात ज्यादा आगे नहीं बढ़ी।
केंद्रीय तेल मंत्रालय ने पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस विभाग से संबंधित संसदीय कमेटी को जो जानकारी दी, उससे इसी बात का संकेत मिला। गौरतलब है कि यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से भारत रूसी तेल का बड़ा बाजार बना है। रूसी कंपनियों ने आरंभ में रुपये में भुगतान स्वीकार किया, लेकिन बाद में इसको लेकर वे अनिच्छुक हो गईं हैं। अब वे भारतीय कंपनियों से चीनी मुद्रा युवान या फिर यूएई की मुद्रा दिरहम में भुगतान मांगती हैं।
रूस का कहना है कि भारतीय रुपया उसके भंडार में जमा होता गया, जिसे खर्च करना उसके लिए कठिन हो गया है। जाहिर है, कोई देश किसी विदेशी मुद्रा का इस्तेमाल आयात के भुगतान के लिए करेगा। भारतीय रुपया कोई तीसरा देश स्वीकार नहीं करता, जबकि भारत का निर्यात इतना बड़ा नहीं है कि सारा रुपया फिर यहीं वापस आ जाए।
तो सबक है कि मुद्रा के अंतरराष्ट्रीयकरण के लिए अर्थव्यवस्था की जड़ें मजबूत करना अनिवार्य है। वरना, मुद्रा के अंतरराष्ट्रीयकरण की बात सपना ही बनी रहेगी। यह याद रखना होगा कि मुद्रा की ताकत अर्थव्यवस्था की ताकत से तय होती है।

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