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एक भारतीय की औकात!

– हरिशंकर व्यास

उफ! नरेश गोयल। इस चेहरे ने कई भारतीयों की याद करा दी। जैसे एक राजन पिल्लई था, ब्रिटैनिया बिस्कुट का मालिक। बेचारा तिहाड़ जेल में गर्मी से फडफ़ड़ाते हुए मरा। ऐसे ही आर्थर रोड जेल में एक हर्षद मेहता मरा। फिर याद हो आया कैफे कॉफी डे का मालिक वीजी सिद्धार्थ। इस अरबपति ने आत्महत्या की। और जितना सोचें, नाम उभरेंगे। रामलिंगा राजू, केतन पारेख, वेणुगोपाल धूत, चंदा कोचर या भगोड़ा विजय माल्या, मेहुल चौकसी, नीरव मोदी और रेलीगेर के जेलों में सड़ रहे मालिकान मालविंदर सिंह, शिवेंदर सिंह जैसे कई अरबपति भारतीय। इन्हें आप चाहें तो भ्रष्ट या लूटने वाला मानें लेकिन ये सब मानव हैं! पृथ्वी का वह प्राणी है, जिसे बेसिक गरिमा, संवेदना, सहानुभूति और न्याय का हक इसलिए है क्योंकि जन्म मनुष्य योनि में हुआ है न कि पशु योनि में।
मैं सनातनी और वैष्णवी हिंदू हूं। और मेरे जीवन की संगीत खुराक में लता मंगेशकर की आवाज में ‘वैष्णव जन तो तेने रे कहिए जे पीड़ पराई जाणे रे’ की गूंज हमेशा गुंजती है। तभी मेरे लिखे में जिद्द रही है कि गुलामी में रचे-रमे हम हिंदुओं को इतिहास से मिली क्रूर व्यवस्था की असंवेदनाओं पर जितना हथौड़ा मार कर लिखा जा सके, लिखा जाए। हम भारतीयों का इतिहास क्योंकि कोतवालों, कारिंदों, हाकिमों और लाठियों व तलवारों की विधर्मी शासन व्यवस्था के अनुभवों का है सो, स्वाभाविक जो हम सदियों से बेगैरत, बेऔकात जिंदगी जीने की नियति लिए हैं। फिर भले वक्त मुगलों का हो, अंग्रेजों का हो, नेहरू का हो, पीवी नरसिंह राव का हो या नरेंद्र मोदी का।
सोचें, भारतीयों की उद्यमिता को बंधन मुक्त बनाने वाले पीवी नरसिंह राव के वक्त पर। मैं नरसिंह राव का मुरीद था। लेकिन उनके वक्त में भी जब तिहाड़ जेल में अरबपति राजन पिल्लई की मौत हुई तो मैंने लिखते हुए सवाल किया कि भला नरसिंह राव ऐसे असंवेदनशील कैसे जो तिहाड़ में इस तरह कोई मरे! सही है राजन पिल्लई के सेठ होने के कारण उनकी मौत ने दिल-दिमाग को हिलाया था। लेकिन इसके साथ यह वास्तविकता भी थी कि एक अरबपति भी सीबीआई, ईडी, जजों, हाकिमों की असंवेदनशीलता में बेमौत मारा जाता है तो भारत की जेलों में आम आदमी किस तादाद में कैसी लावारिस, बेमौत जिंदगी जीते व मरते हैं! मैं एक बूढ़े, ८३ वर्षीय स्टेन स्वामी के चेहरे को तो कतई भूल नहीं पाता, जिसे भीमा कोरेगांव की कथित साजिश में गिरफ्तार कर जेल में डाला गया और जेल में उस बीमार, बूढ़े आदमी को पानी पीने के लिए स्ट्रॉ तक उपलब्ध नहीं कराई गई। अतंत: वह बेमौत मृत्यु को प्राप्त हुआ।
स्टेन स्वामी की मौत ने भी मुझे लिखने को मजबूर किया था तो इनकम टैक्स के कारिंदों की लूट और लाठी से तंग आए कैफे कॉफी डे के अरबपति वीजी सिद्धार्थ की आत्महत्या पर भी मैंने लिखा था।
इसलिए कि कोई कितना ही भ्रष्ट हो, पापी हो, देशद्रोही हो, वह है तो मानव समाज का वह जीव, जिसकी जिंदगी मानव मूल्यों, मानव संवेदनाओं, मानवीय न्याय व्यवस्थाओं में रची-बसी होनी चाहिए। भारत यदि जंगल और जंगल राज नहीं है तो क्यों कर हर नागरिक बिना औकात के है या लोगों की औकात पैसे और ताकत से बनती या बिगड़ती है? क्यों कर, जिसकी लाठी उसकी भैंस है? और फिर लाठी भी सभी को उनके अलग-अलग वक्त, अलग-अलग मौके पर औकात के कम-ज्यादा होने के अनुभव करवाने वाली!
जाहिर है हम लोग क्योंकि सैकड़ों सालों से मालिक बनाम गुलाम या जैसे रामजी रखेंगे वैसे रह लेंगे की नियति में बंधे आए हैं तो इसके मनोविज्ञान में सत्ता और लाठी की महिमा भी हमारी सोच और व्यवहार का एक आधार है। तभी बतौर मनुष्य हर व्यक्ति सिर्फ अपने निज सरोकारों में सिमटा होता है। इसलिए मानवीय संस्कारों, प्राथमिकताओं, मानवीय सरोकारों, मूल्यों, संवेदनाओं से गरिमा के साथ जिंदगी जीना संभव ही नहीं है। कोई भी हो और वह पैसों से या सत्ता से अपने आपको श्रेष्ठि, परमश्रेष्ठि, अरबपति, प्रधानमंत्री बना ले या मंत्री, अफसर व नायक-महानायक, हीरो बन जाए लेकिन सत्ता के खौफ में भूरेलाल-वीपी सिंह के एक वक्त मैंने धीरूभाई अंबानी को कंपकंपाते, लकवाग्रस्त होते बूझा था। जरा याद करें हाल के शाहरूख खान और उसके बेटे आर्यन के चेहरों को, याद करें पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव के अस्पताल में दाखिल उस चेहरे को जो किसी लक्खूभाई के झूठे आरोपों में फडफ़ड़ाती सांसें लेते हुए थे। और इस सब पर भारत के लोग, भारत का मीडिया हर वक्त लिंच करते हुए परपीड़ा में मजा लेता हुआ था।
दरअसल आजादी के बाद नेहरू और संविधान सभा ने भारतीयों की औकात को अंग्रेजों के समय से भी गई गुजरी बनवाने की गलतियां की है। इसलिए नागरिकों की कोई औकात नहीं तो व्यवस्था संवेदनहीन, मानवाधिकारहीन और अन्यायों से ऐसी ठूठ बनी है कि जिले का कलक्टर बैठक में एक ट्रक डाईवर को औकात बतलाता मिलेगा तो ईडी, सीबीआई या थाने का कोतवाल मुख्यमंत्रियों, गृहमंत्रियों, प्रधानमंत्रियों, अरबपतियों को औकात बतलाता मिला है। फिर खुद हाकिम, कलक्टर, कोतवाल भी बिना औकात के रोते व सिसकते मिलेंगे। इसलिए क्योंकि इन्हे औकात दिखलाने वाले दर्जनों व्यवस्थागत लेयर है। सवाल है हम भारतीयों की औकात का निर्धारक तत्व क्या है? मेरा मानना है ‘लाठी! जिसकी लाठी उसकी भैंस!
विषयांतर हो गया है। नरेश गोयल पर लौटा जाए। मैं गोयल से कभी नहीं मिला। लेकिन दिल्ली के सत्ता तिलिस्म और दलाल तंत्र की समझ के कारण बड़ौत के एक लाला की किस्मत को नेता-अफसर-दलाल के तंत्र से बनने की भनक मुझे रही। और याद करें, पब्लिक के लाखों-लाख करोड़ रुपए अफसरों द्वारा डूबोने वाली सरकारी इंडियन एयरलाइंस की मोनोपॉली के खत्म होने के बाद शुरू हुई जेट एयरवेज ने भारत को कैसी क्वालिटी एयर सर्विस मुहैया कराई थी! मैं तब सोचता था कुछ भी हो, पश्चिमी यूपी का एक लाला एक विदेशी सीईओ की लीडरशीप से अंतरराष्ट्रीय स्तर की कैसी अच्छी वायु सेवा हम भारतीयों को उपलब्ध करा रहा है। लेकिन जैसा हम भारतीयों का चरित्र है सफलता के साथ सत्ता, पैसे और लूट से अहंकार और औकात में सब बेकाबू होता जाता है। इसलिए जब मैंने सुना कि गोयल सेठ अपनी जेट एयरवेज का ब्रसेल्स में हब बना रहा है और कंपनी के ओर-छोर को लेकर अरूण शौरी जैसे सुधीजन भी आश्चर्य जतलाते हैं तो लगा नरेश गोयल हवा में उडऩे लगा है, जगत सेठ हो रहा है (जैसे इस राज में अदानी है)। तो होना वही था जो हमेशा भारत के जगत सेठों के साथ होता आया है। और एक दिन खबर आई, विदेश जाते हुए नरेश गोयल को प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने एयरपोर्ट पर धर लिया।
ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि वक्त बदला। सरकार बदली। लाठी और कोतवाल नए आ गए। हाकिमों की नजर बदली तो कंपनी पर नजर लगी। जैसा भारतीय उद्योगों व कंपनियों के साथ होता आया है, वैसे ही नरेश गोयल की कमाई न जाने कहां गई। बैंकों की लेनदारी, नेताओं की नजर और कंपीटिशन से जेट एयरवेज का ऐसा बाजा बजा कि नरेश गोयल मुंबई की आर्थर रोड जेल में!
और रविवार सुबह पढऩे को मिला कि मुंबई में विशेष न्यायाधीश एमजी देशपांडे के यहां सुनवाई में नरेश गोयल फूट-फूट कर रोए। सोचने वाले सोच सकते हैं कि भारत की न्याय व्यवस्था की हाकिमशाही के आगे कैदी लोग जज के सामने रोने, गिड़गिड़ाने का अभिनय करते है ताकि जमानत मिले। सो नरेश गोयल भी एक्टिंग कर रहे थे।
पर मैं संवेदनशील मानुष हूं। और सीबीआई, ईडी, कोतवालों, अदालतों की इतिहासजन्य भारतीय सच्चाई को खूब जानता-समझता हूं तो बतौर एक वैष्णव जन के मैं सचमुच ७० वर्षीय बूढ़े नरेश गोयल की जज के आगे मृत्युइच्छा को जान कर विचलित हुआ।
जज के आगे नरेश गोयल का कंपकंपाते, हाथ जोड़ कहना था- मैं जिंदगी की आस खो चुका हूं। इस तरह जीने से बेहतर है मैं जेल में ही मर जाऊं। मेरी सेहत बहुत बिगड़ गई है। जेलकर्मियों की भी मेरी मदद करने की सीमाएं हैं। मेरी पत्नी कैंसर के अंतिम चरण में बिस्तर पर हैं। और मेरी एकमात्र बेटी भी बीमार है। गोयल को सुनने के बाद विशेष न्यायाधीश एमजी देशपांडे ने कहा- मैंने उनकी बात ध्यान से सुनी और जब वह अपनी बात रख रहे थे तो मैंने उन्हें ध्यान से देखा। मैंने पाया कि उनका शरीर कांप रहा था। उन्हें खड़ा होने के लिए सहारे की जरूरत है। इन जज साहब के सामने नरेश गोयल ने अपनी जमानत अर्जी में हृदय, प्रोस्टेट, हड्डी आदि विभिन्न बीमारियों का हवाला दिया था और कहा कि यह मानने के तर्कसंगत आधार हैं कि वे गुनाहगार नहीं हैं।
जाहिर है गोयल की जमानत याचिका के खिलाफ ईडी नाम की वह कोतवाल संस्था है, जिसके आरोपों की अधिकतम सजा सात साल है, जबकि कथित आरोपी तीन-चार साल तो सुनवाई से पहले ही जेल में सड़ता रहता है। सीबीआई और ईडी क्योंकि राजा उर्फ प्रधानमंत्री की खास कोतवालियां हैं तो अदालत को भी जमानत देने में सोचना होता है। जबकि सभ्य समाजों में आरोपी पर जब तक आरोप साबित नहीं होते वह अपराधी नहीं माना जाता। उसकी स्वतंत्रता, गरिमा, संवेदनशीलता की हर जज, हर प्रॉसिक्यूटर चिंता करता है। लेकिन भारत का नागरिक पांच-सात साल की अधिकतम सीमा के आरोप में पहले तो पांच-छह साल जेल में सड़ता रहता है और अदालत उस पर लगे आरोपों को खारिज करती है तो भारत की व्यवस्था में कोई इस बात का जवाब देने वाला नहीं कि क्यों वह इतने साल जेल में पड़ा रहा? उसकी इज्जत, हैसियत, गरिमा और स्वंतत्रता का जो फालूदा बना उसके लिए कौन जिम्मेवार? कोई नहीं!
तथ्य है कि ईडी के आरोपों में अब तक चंद लोगों को ही सजा हुई है। संसद में २१ मार्च २०२२ को सवालों पर सरकार द्वारा बताई जानकारी के अनुसार अप्रैल २०११ से मार्च २०२२ के दौरान फेमा उल्लंघन की १८,००३ जांचें शुरू हुईं। और प्रॉसिक्यूशन आरोपपत्र ९४३ दायर हुए। इनकी अलग-अलग स्टेज पर ट्रायल है और २३ आरोपियों को सजा हुई है!
तभी भारत का सर्वकालिक सत्य है कि लाल किले का बादशाह, चांदनी चौक के कोतवाल से लेकर प्रधानमंत्री और उनकी सीबीआई, ईडी के कोतवालों की नजर, उनका तंत्र ही न्याय है, अंधा कानून है और उसी से मनुष्य या नागरिक की गैरत और बेगैरत है। इसलिए भारत में जेलें हमेशा भरी होती हैं। सालों, दशकों लोग बिना जमानत के जेलों में सड़ते रहते हैं। हम भारतीयों, सनातनियों, वैष्णवजनों में सत्ता और लाठी की बुरी नजर से घायल पीड़ितों के लिए संवेदना पैदा ही नहीं होती। आखिर सदियों से जब ऐसा चला आ रहा है तो धड़कनों में इंसानी संवेदना लौटे भी तो कैसे?
हां, आजादी के बाद कभी भारतीयों को यह पाठ नहीं पढ़ाया गया, या पढऩे-पढ़ाने की जरूरत महसूस नहीं हुई कि इंसान हो इंसान की तरह जीना सीखो! स्वतंत्र हो तो स्वतंत्रता से जीयो! इंसान हैं तो इंसानी गरिमा की रक्षा-सुरक्षा हो। मानव हैं तो मानवाधिकारों की चेतना बने! इंसानी मूल्यों, संवेदनाओं, मानवीय व्यवस्था को अपनाओ न कि गुलामी, भक्ति और लाठियों की बंधुआगिरी में जीते जाओ!
कल मैंने एक पोस्ट देखी। कैनेडा में बहुत सिख हैं। पुलिस में भी भर्ती होती है तो कैनेडा सरकार ने गुरूद्वारों के साथ व्यवस्था बनवाई कि पुलिस में भर्ती के लिए वह पहले गुरूद्वारा साहिब लंगर में सेवा करे। सेवाभावी बने। ताकि वह गुरू नानक साहिब के मानवतावादी सिद्धांतों, मानवीय सरोकारों, सेवाओं, संवेदनाओं का व्यवहार पुलिस सेवा में अपनाए रहे। ठीक विपरीत भारत है। न व्यवस्था और तंत्र मानवीय और न मानव औकात, मूल्यों और अधिकारों की जरूरत की चेतना। वजह यह भी है कि विकसित सभ्य समाजों में मानवों द्वारा मानव के लिए मानवीय व्यवस्था निर्माण है जबकि भारत में सत्ता द्वारा, सत्ता के लिए, सत्ता की व्यवस्था है। लाठी से, लाठी के लिए, लाठी की व्यवस्था।
देश इन दिनों रामजी के भजनों में डूबा हुआ है। लेकिन सोचें, आजाद भारत के इतिहास में क्या किसी शासन, किसी प्रधानमंत्री और खुद भारत राष्ट्र-राज्य ने सत्तावानों, कोतवालों, हाकिमों, जजों की क्या कभी यह ट्रेनिंग, उनका यह प्रैक्टिकल करवाया कि हम मानव हैं। हमें मानवतावादी होना है। उन मर्यादाओं में रहना है, जिसके कारण रामजी हमारे आराध्य हैं। हमें त्यागना है अहंकार की तमाम लाठियों को। हमें शबरी और शत्रु का भी मान रखना है! हर नागरिक की परीक्षा में खरा उतरना है ताकि मर्यादा पुरूष राम का रामराज्य भारत भूमि में बने!

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