समय तेजी के साथ परिवर्तित हो रहा है। तकनीक के साथ-साथ पर्यावरण में भी भारी बदलाव देखने को मिल रहे हैं और ऐसा ही हमारी नई पीढ़ी के साथ हो रहा है। उनके व्यवहार में कई वांछित- अवांछित व्यवहारिक आदतें देखने को मिल रही हैं। विडंबना यह है कि बदलते माहौल में बच्चों के मनोभाव और समस्याओं को समझने की कोशिश भी नहीं की जाती। यही वजह है कि बच्चे आत्मकेंद्रित होने लगते हैं। हमें गंभीरता से इस बात पर विचार करना होगा कि कहीं बच्चों को हिंसक बनाने में हमारा ही हाथ तो नहीं है ? अक्सर देखा गया है कि माताएं तो अपने बच्चों को समय दे देती हैं, लेकिन ज्यादातर पिता अपने बच्चों को समय नहीं दे पाते। दूसरी तरफ, सोशल मीडिया ने भी बच्चों और युवाओं के व्यवहार को बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
दरअसल, कोरोना काल में ऑनलाइन शिक्षा की मजबूरी के चलते भी बच्चों को मोबाइल की ज्यादा लत लगी। इस लत ने धीरे-धीरे इस तरह अपनी जड़ें जमा लीं कि इसके दुष्परिणाम बच्चों को अपनी चपेट में लेने लगे। परिवार भी बच्चों को मोबाइल और सोशल मीडिया से दूर रखने का कोई व्यावहारिक हल नहीं ढूंढ़ पाए। यही कारण है कि आज के बच्चे अनेक मनोवैज्ञानिक व्याधियों से ग्रस्त हैं। दरअसल, हम बच्चों और युवाओं के मनोविज्ञान को समझने की कोशिश ही नहीं करते और सतही तौर पर उनकी समस्याओं पर बात करने लगते हैं। एक अध्ययन के अनुसार मोबाइल गेम खेलने वाले लगभग ९५ फीसदी बच्चे तनाव की चपेट में आसानी से आ जाते हैं। करीब ८० फीसदी बच्चे गेम के बारे में हर समय सोचते रहते हैं। गौरतलब है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जून, २०१८ में ऑनलाइन गेमिंग को एक मानसिक स्वास्थ्य विकार घोषित किया था। ऑनलाइन गेम उद्योग में भारत दुनिया में चौथे नंबर पर है। हमारे देश में ६० फीसदी से ज्यादा ऑनलाइन गेम खेलने वाले २४ साल से कम उम्र के हैं।
सवाल है कि क्या इस दौर में गंभीरता के साथ इस बात को लेकर चिंतन हो रहा है कि बच्चों और युवाओं में प्रतिशोध की भावना क्यों पैदा हो रही है? क्या कारण है कि आज हिंसक चरित्र बच्चों के आदर्श बन रहे हैं? क्यों बच्चों में धैर्य और संयम खत्म होता जा रहा है? इन सवालों के उत्तर ढूंढऩे की कोशिश की जाएगी तो उनके मूल में संवादहीनता की बात ही सामने आएगी। यह संवादहीनता द्विपक्षीय है यानी एक तरफ बच्चों का परिवार से संवाद नहीं है तो दूसरी तरफ परिवार का भी बच्चों से संवाद नहीं है। अगर कहीं परिवार का बच्चों से संवाद है, तो उसमें भी नकारात्मकता का भाव ज्यादा है। यही कारण है कि बच्चों और युवाओं में चिड़चिड़ापन बढ़ रहा है। जब तक बच्चों और युवाओं से परिवार और शिक्षण संस्थानों का सकारात्मक संवाद स्थापित नहीं होगा तब तक बच्चों में धैर्य और संयम जैसे गुण विकसित नहीं हो पाएंगे। इस दौर में जिस तरह से भारत समेत पूरे विश्व के बच्चों और युवाओं में हिंसा की भावना बढ़ रही है, उसे देखते हुए परिवार और शिक्षण संस्थानों को कई स्तरों पर प्रयास करने होंगे। इन प्रयासों के व्यावहारिक पहलुओं पर भी ध्यान देने की कोशिश करनी होगी।



