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भारत के प्रति भूटान के रूख़ में परिवर्तन

क्या भूटान भी भारत से दूरी बना कर चीन के पाले में जा रहा है? यह सवाल वैसे अब जाकर चर्चित हुआ है, लेकिन ऐसे संकेत काफी समय से मिल रहे थे। ताजा घटनाक्रम में भूटान के प्रधानमंत्री लोटे त्शेरिंग ने बेल्जियम के अख़बार ला लेब्रे को दिए इंटरव्यू में कम से कम तीन ऐसी बातें कहीं, जो भारत को पसंद नहीं आ सकतीं। पहली बात तो यह कि उन्होंने भूटान के अंदर चीन की घुसपैठ की बात को सिरे से नकार दिया। जबकि २०२० में ऐसी कई खबरे आई थीं, जिनमें बताया गया था कि भूटान के बॉर्डर के भीतर चीन गांव बना रहा है। जबकि अब ला लेब्रे को दिए इंटरव्यू में लोटे त्शेरिंग ने कहा है कि चीन ने जो गांव बनाए हैं, वे भूटान के भीतर नहीं हैं। दूसरी बात उन्होंने कही कि चीन और भूटान के बीच का सीमा विवाद हल करने की दिशा में प्रगति हुई है और संभव है कि अगली दो या तीन वार्ताओं में इसका समाधान निकल आए। तीसरी बात यह कि उस क्षेत्र में जहां भारत, भूटान और चीन की सीमाएं मिलती हैं, वहां मौजूद विवाद के बारे में उन्होंने कहा कि तीनों देश समानता के स्तर पर बातचीत करके इसका हल निकालेंगे।
यानी एक तो उन्होंने इस विवाद में चीन को बराबर का हित-धारक बताया और दूसरे उन्होंने इस धारणा को तोडऩे की कोशिश की कि भूटान की विदेश और रक्षा नीति तय करने में भारत की भूमिका होती है। यह धारणा बनने का लंबा इतिहास है। लेकिन अब ऐसा लगता है कि भूटान भारत के बरक्स अपनी संप्रभुता को जताने के लिए तैयार हो रहा है।
गौरतलब है कि भूटान में चीन की घुसपैठ की बात को नकार कर भूटानी प्रधानमंत्री ने उस सारे नैरेटिव पर सवाल खड़ा कर दिया है, जिसको लेकर डोकलाम विवाद हुआ था। तो आखिर भूटान के रुख में यह बदलाव क्यों आया? क्या इसे भारतीय कूटनीति की विफलता के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए? भारत के लिए यह बात गहरे आत्म-निरीक्षण का है कि आखिर पास-पड़ोस के देश क्यों ऐसे रुख तय कर रहे हैं, जो भारतीय सुरक्षा हितों के खिलाफ जाते हों?

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