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अयोध्या में बाईस जनवरी का वह दिन!

– श्रुति व्यास

जैसे-जैसे जश्न का दिन नज़दीक आता जा रहा था, मुझे समझ आने लगा कि ६ दिसंबर १९९२ क्यों और कैसे हुआ होगा? मैंने बाईस जनवरी को आस्था की ताकत देखी, विश्वास का जोश देखा और देखी एक व्यक्ति और उसके आन्दोलन के प्रति अंधभक्ति।
अगर आपके मन में रत्ती भर संदेह भी हो तो उसे निकाल फेंके।
बात बाईस जनवरी की है। मैं तब अयोध्या में थी। और वहां मैंने देखा हिन्दुओं की एकता, राम की भव्यता और आस्था का वह भावातिरेक जिसे आप ड्राइंग रूम में टीवी के आगे बैठकर या इन्स्टाग्राम पर तस्वीरों को देखकर महसूस नहीं कर सकते।
संदेह नहीं बाईस जनवरी का दिन केवल और केवल राजनीति को समर्पित था। उस दिन जो कुछ किया गया, उसका लक्ष्य साफ़ था: हिन्दुओं को एकजुट और लामबंद करो और ऐसा माहौल बनाओ कि यदि आप में एक विशिष्ट आस्था नहीं है तो आप अनैतिक हैं, हिन्दू-विरोधी हैं, राम-विरोधी हैं, मोदी-विरोधी हैं और भारत-विरोधी हैं। आखिर हम सब जानते ही हैं कि धर्म के नाम पर होने वाले संघर्ष कितने क्रूर और कितने वीभत्स होते हैं।
ठंड विकट थी। सुबह कोहरे में लिपटी रहती थी। दिन में भी सूरज के दर्शन दुर्लभ थे और रातें तो हाड़ कंपाने वाली थी हीं। मगर आस्था की उष्णता व उर्जा इन सबके मुकाबिल थी। अलग-अलग रंगरूप के, अलग-अलग पंथों के, अलग-अलग पोशाकें पहने, देश के अलग-अलग हिस्सों के तीर्थयात्रियों, बाबाओं और साधु-संतों का अयोध्या में जमावड़ा था। कुछ लड़के बिहार से स्केटिंग करते हुए पहुंचे थे, कुछ मजदूर मध्यप्रदेश और कुछ आंटियां महाराष्ट्र से आईं थीं। और एक नेपाली परिवार को अचानक अयोध्या में रहने वाले अपने रिश्तेदार की याद आ गयी थी।
शहर का इंच-इंच लोगों से पटा हुआ था। सुरक्षा कड़ी थी और जहाँ देखो तहां भगवान राम के आदमकद कटआउट थे और प्रधानमंत्री के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते होर्डिंग। आकाश फीका था मगर गुलाबी और पीले गेंदे के फूल और चारों ओर लहराते राम के नाम के परचम माहौल में कुछ रंग, कुछ उत्साह घोल रहे थे। हर कोने में स्पीकर लगे थे जो नए दौर के राम भजन सुना रहे थे। ये भजन टेक्नो हैं, ढिंगचक हैं और उन भजनों से बहुत अलग हैं जिन्हें हम न भूतो न भविष्यति लता मंगेशकर की सुरीली आवाज़ में सुनते आए हैं। कुल मिलाकर, अयोध्या रामराज्य की अगवानी के लिए तैयार थी। सब कुछ बहुत भव्य और चटकीला-चमकीला था। आखिर इतिहास लिखा जाना था।
जैसे-जैसे जश्न का दिन नज़दीक आता जा रहा था, मुझे समझ आने लगा कि ६ दिसंबर १९९२ क्यों और कैसे हुआ होगा? मैंने बाईस जनवरी को आस्था की ताकत देखी, विश्वास का जोश देखा और देखी एक व्यक्ति और उसके आन्दोलन के प्रति अंधभक्ति।
जो हो रहा है वह अनोखा है।
भारत हमेशा से आस्था का गढ़ रहा है। दुनिया के अन्य हिस्सों के विपरीत, हमने आस्था का दामन कभी नहीं छोड़ा। हम हमेशा धार्मिक बने रहे और अपनी धार्मिकता को खुल कर प्रदर्शित भी करते रहे। कब-जब, जब वक्त हमारे खिलाफ हो जाता था या हम अर्थ के पीछे भागने लगते थे, तब हम धर्म को थोड़ा पीछे खिसका देते थे। मगर वह रहता हमेशा था और जब भी ज़रुरत पड़ती, वह ड्राइविंग सीट पर आ जाता था। मैंने देखा है कि मेरी और मेरे आसपास के लोगों की जिन्दगी जब मुसीबतों से घिरने लगती है तो हम आस्था के सहारे हो जाते हैं। मैंने काशी में आस्था की दिव्यता का अनुभव किया है, मैंने महाकुम्भ की महानता महसूस की, मैंने नाथद्वारा और मथुरा के दैवीय स्पर्श की अनुभूति की है। मगर आस्था हमेशा से मेरे लिए एक व्यक्तिगत मसला रही है। या कम से कम अब तक थी।
मैंने अयोध्या को बहुत नहीं देखा है। पिछली बार सन २०२२ में मैं जब वहां गई थी तो शहर खस्ताहाल था। मुझे नहीं पता कि पुरानी अयोध्या, श्रद्धास्पद अयोध्या, में कैसा महसूस होता है। मगर यह पक्का है कि नई अयोध्या में, नए रामराज्य में सब कुछ अपनी शक्ति का अहसास करवाता हुआ और रोबदार है। आप उसे नजऱ अंदाज़ नहीं कर सकते। चाहे वह लेजऱ शो या ड्रोनों का प्रदर्शन, चाहे वे आधुनिक भजन हों या मोबाइल की स्क्रीनों की आँखें चौंधियाने वाली चमक – सब आपका ध्यान अपनी ओर खींच कर ही मानते हैं।
शहर का प्रवेश द्वारा बहुत शानदार है, सडकें चौड़ी हैं और नई इमारतों की बाढ़ आ गयी है। पीले, मैरून और भूरे – मकान पर मकान और होटलों पर होटलें। ठाठदार रेस्टोरेंटों में चाईनीज़ नूडल्स और फ्राइड राइस मिल रहा है। सरयू के किनारे और उसके घाट चमक रहे हैं। आने-जाने के लिए इलेक्ट्रिक टुक-टुक हैं और ज़मीन-जायदाद के दाम रातों-रात आसमान पर पहुँच गए हैं। बाईस जनवरी और उसके पहले अयोध्या और उसके वासियों ने दसियों लाख रुपये कमाए। घटिया होटलें, जयपुर के ताज रामबाग़ के बराबर किराया वसूल रही थीं और अधबने मकान में एक रात ठहरने के लिए आपको १०,००० रुपये तक चुकाने पड़ सकते थे। चायवालों के पास साँस लेने की फुर्सत नहीं थी। यहाँ तक कि अयोध्या के बंदर भी उत्साह में कूद रहे थे। आखिर भगवान जो आने वाले थे।
हालाँकि सारी भव्यता, केवल ‘राईट’ (एक से अधिक अर्थों में) व्हीव्हीआईपीज़ के लिए आरक्षित थी मगर किस्मत से मुझे मंदिर के उद्घाटन के दिन ही दर्शन करने का मौका मिल गया। मगर यह मौका बिना संघर्ष के नहीं मिला। और मिले भी क्यूं? भगवान को पाने के लिए संघर्ष तो करना ही पड़ता है।
दरअसल जहाँ मीडिया कंपनियों के सेठों को व्हीव्हीआईपी दर्शन का मौका मिला, वहीं पत्रकार बन्धु भीड़ का हिस्सा थे। रामलला सोने जाएँ, उसके पहले उनके दर्शन करने के प्रयास में कुछ गिरे, कुछ के कैमरे टूटे और कुछ के घुटने और कुहनियाँ छिलीं।
वहां मौजूद पत्रकारों के हुजूम में मुझे आस्था का एक नया आयाम देखने को मिला। सिवाय कुछ पत्रकारों के, जो १९९२ में अयोध्या के घटनाक्रम के भी गवाह थे, वहां कवरेज के लिए पहुंचे अधिकांश पत्रकार मिलेनियल थे। उनमें से अधिकांश खुल कर कहते रहते थे कि ईश्वर, धर्म और आस्था में उनकी कोई ख़ास आस्था नहीं है। वे गर्व से स्वयं को नास्तिक, अनीश्वरवादी, संशयवादी और मूर्तिभंजक बताते रहे हैं। मगर २२ जनवरी की रात मुझे आस्था की ताकत, आस्था की दिव्यता को नए परिप्रेक्ष्य से देखने का मौका मिला। पत्रकारों ने पहले तो अपना पेशेवराना काम किया – पीटूसी किया या फोटो खींचे या नोट्स लिए। उसके बाद उनमें से कुछ एक कोने में खड़े होकर, गर्भगृह की पवित्रता में उतराने लगे। कुछ भगवान की वापसी पर गर्वित थे, कुछ की आखें नम थीं तो कुछ अपने घर फ़ोन लगाकर, अपने परिवारजनों के लिए विशेष सीधा प्रसारण कर रहे थे।
आस्था आपसे वह करवा सकती हैं जो आप सोच भी नहीं सकते, आस्था के कारण आप अपना सर झुका सकते हैं और दंडवत हो सकते हैं। मगर हमारे धर्म की विशेषता यही रही है कि वह आपको कुछ भी करने के लिए मजबूर नहीं करता। अगर आपको अन्दर से महसूस होता है कि आपको यह करना चाहिए, तो आप वह कर सकते हैं। और यही धर्म की असली ताकत होती है।
मगर नए भारत में यह सब बदल गया है। अब आपको नख से शिख तक अपनी आस्था पहननी पड़ती है, अब आस्था आपकी बोली में झलकनी चाहिए, आपके चाल में दिखनी चाहिए। जब आप सरयू के किनारे से लाइव टीवी शो करें, तब आपको अपनी आस्था में सराबोर दिखना चाहिए ताकि किसी दर्शक को तनिक भी संदेह न रह जाए कि आपकी आस्था क्या है। आप जब दूसरों का अभिवादन करें तो उसमें आपकी आस्था झलकनी चाहिए। आपकी कमीज़ के रंग से आपकी आस्था दिखनी चाहिए। मगर २२ जनवरी को आडम्बर भी था। बहुत ज्यादा था। और पूरा कार्यक्रम भगवान से ज्यादा एक व्यक्ति पर केन्द्रित था। हर अखबार और पत्रिका, हर टीवी स्क्रीन पर प्रधानमंत्री थे – और साथ में राम भी। एक प्रतिनिधि राष्ट्रीय पत्रिका का शीर्षक था ‘गॉडस पॉलिटिशियन’ (ख़ुदाई सियासत-दाँ)। बाईस जनवरी को निश्चित याद किया जाएगा मगर संभवतया राजनैतिक कारणों से। कुछ लोग राम मंदिर की तामीर को भारतीय रेनासां (नवजागरण) बता रहे हैं। मगर इतिहास तो हमें बताता है कि रेनासां वह दौर था जब सांस्कृतिक, बौद्धिक और वैज्ञानिक प्रगति हुई थी और लोग धर्म और राजकाज के मिश्रण से दूर गए थे। मैंने कहीं पढ़ा था कि “भावना, जिसके पीछे कोई तथ्य नहीं होता, विवेक पर भारी पड़ती है और सदियों के परिश्रम से हासिल की गई उदारता की दिशा को एकदम पलट देती है।”
हिन्दू धर्म शायद एक बदलाव की कगार पर है। उसे देश की अस्मिता को परिभाषित करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। पहले आस्था के ढांचे (शाब्दिक या लाक्षणिक दोनों अर्थों में) दमन के नहीं बल्कि आज़ादी के ढांचे माने जाते थे। फिर १९९२ हुआ। उसके बाद हम सबने धीरे-धीरे यह मान लिया कि हमारी आस्था का ढांचा, हमारे विश्वास जटिल हैं और अगर वे पूर्व-निर्धारित खांचों में नहीं बैठ सकते, तो न सही। फिर आई २२ जनवरी। अब आपको अपनी आस्था अपनी चेहरे से चिपकानी पड़ेगी। अगर आप जय श्री राम नहीं बोलते, तो आप हिन्दू नहीं हैं। अगर आप नरेन्द्र मोदी को भगवान का अवतार नहीं मानते तो आप भारतीय नहीं हैं।
और ऐसा भी नहीं है कि भारत में जो हो रहा है वह अनोखा है। भाषा और राष्ट्रवाद के साथ-साथ धर्म भी किसी समुदाय में जोश भरने, उसे एक विशेष आकार देने का एक शक्तिशाली औजार रहा है, और है। बाईस जनवरी को धर्म का यही उपयोग किया गया। अब धर्म हमारे लिए आशा और सांत्वना का स्त्रोत नहीं है, व्यक्तिगत तौर पर हमें हिम्मत बंधाने का औजार नहीं है। धर्म अब राजनीति के मंच पर ठीक बीच में उपस्थित है। और जब राजनीति और दैवियता का घालमेल होता है तो उसके नतीजे अप्रत्याशित होते हैं।
यह भारत लिए गौरव का क्षण है, मगर इसकी जो कीमत हमने अदा की है, वह बहुत ज्यादा है।

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