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अज्ञातवास

महाभारत में एक प्रसंग आता है। धर्मराज युधिष्ठिर विराट के दरबार में पहुँचकर कहा-
हे राजन! मैं द्यूत विद्या में निपुण हूँ। आपकी सेवा करने की कामना लेकर उपस्थित हुआ हूँ। जिस खेल मे वे सब कुछ हार चुके थे वही खेल “कंक” बन कर राजा विराट को सिखाने लगे।

जिस बाहुबली के लिये रसोइये भोजन लिए खड़े रहते थे, वह भीम “बल्लभ” का भेष धारण कर स्वयं “रसोइया” बन गया।

नकुल और सहदेव पशुओं की देखरेख करने लगे।

दासियों से घिरी रहने वाली महारानी द्रौपदी …….स्वयं एक दासी “सैरंध्री” बन गयी।

वह धनुर्धर जिसके धनुष की प्रत्यंचा पर बाण चढ़ते ही युद्ध का निर्णय हो जाता था। पौरुष का प्रतीक अपना पौरुष त्याग कर होठों पर लाली, आंखों में काजल लगा कर एक नपुंसक “बृह्नला” बन गया।

यह पांडवों के लिये अज्ञातवास नहीं बल्कि परिवार के प्रति अपने समर्पण की पराकाष्ठा थी।

वह जिस रूप में रहे, अपमान सहते रहे …….जिस कठिन दौर से गुज़रे …..उसके पीछे उनका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं था।

आज भी अज्ञातवास जी रहे ना जाने कितने महायोद्धा दिखाई देते हैं। कोई अपने उच्च पदाधिकारियों, किसी पूंजीपति, किसी के अधीन नौकरी करते हुये उससे बेवजह अपमानित, डांट, गाली खा रहा है क्योंकि उसे अपने तमाम पारिवारिक दायित्वों की पूर्ति करनी है। बच्चों की फीस, बेटी के ब्याह के लिये पैसे इकट्ठे करता बाप एक सेल्समैन बन कर दर-दर धक्के खा कर सामान बेचता दिखाई देता है।

रोज़मर्रा के जीवन में ऐसे किसी संघर्षशील व्यक्ति से रूबरू हों तो उसका आदर कीजिये, उसका सम्मान कीजिये।
गेट के बाहर खड़ा गार्ड……होटल में रोटी परोसता वेटर…..सेठ की गालियां खाता मुनीम……. वास्तव में कंक …….बल्लभ और बृह्नला हैं।

कोई भी अपनी मर्ज़ी से संघर्ष या पीड़ा नही चुनता। वे सब अपने परिवार के अस्तित्व की लड़ाई के लिए संघर्ष करते हुए अज्ञातवास जी रहे हैं……!

याद रहे……

अज्ञातवास के बाद बृह्नला जब पुनः अर्जुन के रूप में आये तो कौरवों का नाश कर दिया। वक्त बदलते देर नहीं लगता। संघर्ष करने वाले का भी अज्ञातवास अवश्य समाप्त होगा।

यही नियति है।
यही समय का चक्र है।
यही महाभारत की सीख है!

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