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How is this possible?

यह कैसे संभव है?

पंजाब में एक व्यक्ति खुलेआम खालिस्तान की वकालत करे, उसके एक साथी को रिहा कराने के लिए उसके सैकड़ों समर्थक अमृतसर में एक थाने पर धावा बोल दें, पुलिस उसे रिहा करने पर तैयार हो जाए और उस पर राज्य या केंद्र सरकारों की कोई प्रतिक्रिया नहीं आए- सामान्य स्थितियों में यह संभव नहीं हो सकता। लेकिन ऐसा हुआ है, और वह भी उस समय जब देश में कथित रूप से एक मजबूत सरकार है। ‘वारिस पंजाब दे’ नाम के संगठन के प्रमुख अमृतपाल सिंह ने अपनी उग्र गतिविधियों और बयानों से जरनैल सिंह भिंडरावाले की याद दिला दी है। खुलेआम देश के गृह मंत्री की ‘इंदिरा गांधी जैसी हालत’ करने की धमकी देने वाले इस शख्स ने फिलहाल पंजाब पुलिस को अपने आगे समर्पण करने के लिए मजबूर कर दिया। उसके साथी लवप्रीत सिंह तूफान को जेल से छोड़ दिया गया। ऊपर से तुर्रा यह कि जिस मामले में तूफान को गिरफ्तार किया गया, उसमें उसके ‘निर्दोष होने का सबूत’ अमृतपाल के समर्थकों ने पुलिस के सामने रखा और पुलिस ने उसे स्वीकार कर लिया। यानी अब साक्ष्यों के बारे में फैसला करने का अधिकार पुलिस के पास आ गया है।
या फिर कौन दोषी है- कौन निर्दोष यह तय करने का अधिकार ताकत और जनता के एक हिस्से में समर्थन रखने वाले गैर-सरकारी गुटों को मिल गया है। इस सिलसिले में यह कहा जा सकता है कि चूंकि बाकी देश में धार्मिक रूप से बहुसंख्यक समुदाय के गुट ऐसे ‘अधिकार’ को रोज ही जता रहे हैं, तो पंजाब में धार्मिक रूप से बहुसंख्यक समुदाय ने भी एक बार फिर यह राह पकड़ ली है। लेकिन जिन लोगों को सचमुच इस देश के भविष्य की चिंता है, उन्हें यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि रूल ऑफ लॉ (कानून के राज) को ऐसी चुनौतियां भारत को उथल-पुथल की दिशा में ले जा सकती हैं। इसलिए ऐसी प्रवृत्तियों पर तुरंत लगाम लगाने की जरूरत है। इसके लिए राज्य को सामुदायिक विवादों के बीच अपनी निष्पक्ष भूमिका फिर से हासिल करनी होगी और कानून को चुनौती देने वाले समूहों के खिलाफ पूरी सख्ती से पेश आना चाहिए।

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