जिस समय भारत के दुनिया की सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बनने की चर्चा गर्म है, ये अहम सवाल भी चर्चित है कि आखिर मौजूदा स्थिति के बीच भारत जनसंख्या संबंधी लाभ उठा पाएगा? अब चार साल बाद आई शिक्षा की स्थिति पर वार्षिक सर्वे रिपोर्ट (असर) ने इस सवाल को और भी प्रासंगिक बना दिया है। असर से हर साल भारत की स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता की तस्वीर सामने आती रही है। चूंकि दो से अधिक साल तक स्कूल कोरोना महामारी के कारण बंद रहे, इसलिए ये रिपोर्ट तैयार करने वाली संस्था भी अपना पूरा आकलन पेश नहीं कर पाई। २०२२ में जाकर उसने व्यापक रूप से स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता का अध्ययन किया। ताजा रिपोर्ट से यह तो उत्साहवर्धक सूचना सामने आई है कि महामारी के बाद स्कूलों में छात्रों की मौजूदगी सामान्य हो चुकी है। दरअसल, स्कूलों में दाखिला का प्रतिशत महामारी के पहले से भी ऊंचा हो गया है। लेकिन इस रिपोर्ट से महामारी के दौरान शिक्षा ग्रहण करने में हुए नुकसान का विवरण भी सामने आया है। मसलन, यह आम निष्कर्ष रहा कि आधे से ज्यादा बच्चे अपनी कक्षा से दो कक्षा नीचे के पाठ ठीक से नहीं पढ़ पाते। गणित की स्थिति और ख़राब है।
एक चौंकाने वाला तथ्य यह सामने आया है कि सरकारी विद्यालयों के छात्रों का प्रदर्शन निजी विद्यालयों के छात्रों से बेहतर है, जबकि आम तौर पर निजी विद्यालयों में अपेक्षाकृत समृद्ध घरों के बच्चे पढऩे जाते हैं। बहरहाल, यह सूरत प्रश्न यह उठाती है कि आखिर ऐसी शिक्षा के साथ भारत अपने विकास के लिए अपनी युवा आबादी का लाभ कैसे उठा पाएगा? गौरतलब है कि यह वो वक्त है, जब दुनिया चौथी पीढ़ी के औद्योगिकीकरण में प्रवेश कर रही है। यानी जब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, क्वांटम कंप्यूटिंग और रोबोटिक्स आर्थिक वृद्धि का प्रमुख स्रोत बनने जा रहे हैं। ऐसे वक्त पर कमजोर लर्निंग किस काम की साबित होगी? यह अत्यंत गंभीर सवाल है। अगर भारत को सचमुच डेमोग्राफिक डिविडेंड हासिल करना है, तो उसे इस प्रश्न से उलझना होगा। वरना, सिर्फ बड़ी युवा आबादी से आर्थिक महाशक्ति बनने की आकांक्षा महज़ भ्रम साबित होगी।
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