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कोई राह निकलेगी?

स्विट्जरलैंड के दावोस में हर साल होने वाला वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम एक महत्त्वपूर्ण आयोजन है, जिसकी चर्चाएं अक्सर सुर्खियों में रहती हैं। इसकी वजह यह है कि दुनिया की अर्थव्यवस्था को चलाने वाले कर्ता-धर्ता वहां इकट्ठे होते हैं- वे जो कहते हैं, उससे अंदाजा लगता है कि अब उनकी प्राथमिकता क्या है। फोरम की ५३वीं सालाना बैठक १६ से २० जनवरी तक चली। इस साल का एजेंडा बिखरी दुनिया में आपसी सहयोग रखा गया। जिस वक्त दुनिया दो खेमों में बंट रही है, उस समय यह एजेंडा प्रासंगिक तो है, लेकिन इसकी भावना के अऩुरूप कोई सहमति बना पाना असंभव-सा प्रतीत होता है। फोरम की यह बैठक वैश्विक महंगाई, ऊर्जा संकट, यूक्रेन युद्ध और चीन में फिर से बढ़ते कोविड के बीच हुई। बैठक में महंगाई, ऊर्जा संकट और चीन में बढ़ते कोविड के मामले बातचीत का बड़ा मुद्दा बने रहे। फोरम के प्रमुख क्लाउस शवाब ने कहा कि आर्थिक, सामाजिक, भू-राजनीतिक और पर्यावरणीय संकट एक साथ मिलते दिख रहे हैं, जो बहुत विविध और अनिश्चित भविष्य बना रहे हैं।
उन्होंने कहा है- दावोस की वार्षिक मीटिंग में यह सुनिश्चित करने की कोशिश की गई कि नेता संकट वाली मानसिकता में फंसे ना रह जाएं। इस आयोजन में १३० देशों के करीब २,७०० राजनेताओं, कारोबारियों और समाज को प्रभावित करने वाले लोगों के शामिल होने का दावा है। लेकिन इस बार प्रमुख देशों के राष्ट्राध्यक्ष या सरकार प्रमुखों की उपस्थिति नाम-मात्र की ही रही। जी-७ देशों के बीच सिर्फ जर्मन चांसलर ओलॉफ शॉल्ज ऐसे हैं, जो इसमें भाग लेने पहुंचे। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन या चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग इसमें शामिल नहीं हुए। इससे बैठक पर फर्क पड़ा। दोनों बड़ी ताकतों के नेताओं की गैर-मौजूदगी के कारण वैश्विक तनाव के मुद्दों पर सार्थक वार्ता की उम्मीद वहां नहीं हो पाई। हालांकि दोनों देशों के व्यापार प्रमुख दावोस में मिले और गुजरे वर्षों में बढ़े व्यापारिक संबंधों पर बातचीत की। यह देखने की बात होगी कि क्या इससे इन तनावों में कोई कमी आती है।

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