इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही के आर्थिक आंकड़े जब जारी हुए और उसमें भारत की वृद्धि दर साढ़े १३ प्रतिशत दिखाई गई, तब भी अनेक जानकारों ने आगाह किया था कि इस पर जश्न मनाने की जरूरत नहीं है। ये आंकड़े पिछले वर्ष यानी २०२१ के उन तीन महीनों की तुलना में थे, जब देश ने कोरोना महामारी की भीषण दूसरी लहर झेली थी। अब दूसरी तिमाही के आंकड़े सामने आए हैं, तो कठोर हकीकत सामने है। इस वर्ष जुलाई से सितंबर तक मैनुफैक्चरिंग और खनन में बड़ी गिरावट दर्ज हुई। कृषि क्षेत्र में तकरीबन साढ़े चार प्रतिशत की वृद्धि दिखाई गई है, लेकिन पर कुछ विशेषज्ञों ने तुरंत सवाल उठाए हैं। वजह यह है कि खुद भारत सरकार इस वर्ष कई प्रमुख फसलों का उत्पादन गिरने का अंदाजा जता चुकी है। महंगे चारे और लंपी महामारी के दुष्प्रभाव से पशुपालन क्षेत्र भी मुश्किल में बताया जाता है। लागत की महंगाई ने डेयरी क्षेत्र को परेशान कर रखा है। ऐसे में इतनी स्वस्थ वृद्धि दर कैसे हासिल हुई, इस पर कयास लगाए जा रहे हैं। तो कुल मिला कर भारतीय अर्थव्यवस्था का एकमात्र सहारा सेवा क्षेत्र में है, जिसमें अच्छी वृद्धि दर्ज हुई है। उसने सकल आर्थिक वृद्धि दर को एक हद तक संभाल लिया। लेकिन सेवा क्षेत्र के भरोसे टिके रहना किसी स्वस्थ अर्थव्यवस्था का लक्षण नहीं हो सकता। अगर प्राइवेट सेक्टर निवेश नहीं बढ़ रहा है और कुल मिला कर पूंजी निर्माण की दर जहां की तहां बनी हुई है, तो यही मानना चाहिए कि भारतीय अर्थव्यवस्था संकट में है। इस सच को स्वीकार करने के बजाय इस पर मुख्य अर्थव्यवस्था से बहुत पहले अपना नाता तोड़ चुके शेयर बाजार और वित्तीय क्षेत्र के चमकते आंकड़ों का परदा डालने की कोशिश से कुछ हासिल नहीं होगा। बेशक आज जो हालात हैं, उनके कई पहलू अंतरराष्ट्रीय हैं। लेकिन भारत के साथ विशेष स्थिति यह है कि संकट की शुरुआत वैश्विक मुश्किलों के उभरने से काफी पहले हो चुकी थी। अब ये संकट गहरा चुका है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि अभी भी सरकार कुछ चमकते आंकड़ों को ढूंढने और उनके आधार पर नैरेटिव बनाने की अपनी शैली से बाहर नहीं निकल रही है।



