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मूल्य सीमा अर्थात प्राइस कैप का मुद्दा

क्या सचमुच पश्चिमी देश रूस के कच्चे तेल पर प्रस्तावित मूल्य सीमा को लागू कर पाएंगे? यूरोप में इसको लेकर जो विरोध उभरा है, उसे देखते हुए यह आसान नहीं लगता। यह साफ सामने आया है कि कई यूरोपीय देश अब ऐसा कदम उठाने के पक्ष में नहीं हैं, जिससे उनका ऊर्जा संकट और बढ़े। इसी का परिणाम है कि इस मसले पर यूरोपियन यूनियन (ईयू) में तीखे मतभेद उभर चुके हैं। भारत जैसे देश तो पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि वे ऐसे किसी कदम का हिस्सा नहीं बनेंगे। जाहिर है, चीन भी इसमें शामिल नहीं होगा। पश्चिम के प्राइस कैप को ना मानने वाले देशों की सूची इन दोनों देशों के अलावा और भी लंबी हो सकती है। रूस यह साफ कह चुका है कि अगर किसी प्रकार की मूल्य सीमा लगाई गई, तो वह तेल का निर्यात बिल्कुल रोक देगा। विश्लेषकों के मुताबिक अगर रूस ने ऐसा कदम उठाया, तो उससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की महंगाई तेजी से बढ़ेगी। इसका अंदेशा अमेरिका को भी है।
अमेरिका की वित्त मंत्री जेनेट येलेन ने कुछ दिन पहले एक मीडिया इंटरव्यू में कहा था कि अगर तेल की कीमतें बढ़ीं, तो अमेरिका अपने स्ट्रेटेजिक पेट्रोलियम रिजर्व से और अधिक तेल बेचने का फैसला करेगा। लेकिन उससे अमेरिकी उपभोक्ताओं को भले राहत मिल सकती है, यूरोप के लोगों को नहीं तो। तो पिछले हफ्ते ईयू की कार्यकारी संस्था- यूरोपियन कमीशन की हुई बैठक में विभिन्न देशों के राजनयिकों के बीच जुबानी झड़पें होने तक की नौबत आ गई। धनी देशों के समूह जी-७ ने अगले पांच दिसंबर से अंतरराष्ट्रीय बाजार में रूसी तेल पर मूल्य सीमा लगाने का प्रस्ताव रखा है। जी-७ ने यूक्रेन पर हमला करने के दंड के रूप में रूसी तेल पर प्राइस कैप लगाने का एलान किया है। योजना यह है कि मूल्य सीमा लागू होने के बाद पश्चिमी कंपनियों से ऋण और बीमा की सुविधा तभी मिलेगी, जब कोई देश तेल तय सीमा कीमत तक पर ही खरीद रहा हो। अब फैसला ईयू पर आकर टिक गया है।

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