हाल के सालों में इज़राइल में जितनी फुर्ती से सरकारें बनती और बिगड़ती रही हैं, दुनिया के किसी अन्य लोकतंत्र में ऐसे दृश्य देखने को नहीं मिलते। बेंजामिन नेतन्याहू लगभग डेढ़ साल बाद फिर दुबारा प्रधानमंत्री बन गए। उनका यह पुनरोदय असाधारण हैं। वे इज़राइल के ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं, जो वहीं पैदा हुए हैं। उनसे पहले जो भी प्रधानमंत्री बने हैं, वे बाहर के किन्हीं देशों से आए हुए थे। जब १९४८ में इज़राइल का जन्म हुआ था, तब जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका आदि कई देशों के गोरे यहूदी लोग वहां आकर बस गए थे।
उन्हीं में से एक का बेटा जो १९४९ में जन्मा था, अब इज़राइल का ऐसा प्रधानमंत्री है, जिससे ज्यादा लंबे काल तक कोई भी प्रधानमंत्री नहीं रहा। ४७ साल की उम्र में इजराइल के प्रधानमंत्री बनने वाले वे सबसे कम उम्र के व्यक्ति थे। वे कई बार हारे और जीते। उन्हें दक्षिणपंथी माना जाता है। वे फौज के सिपाही होने के नाते १९६७ के अरब-इजराइल युद्ध में अपनी बहादुरी दिखा चुके थे।
यह वह वक्त था, जब इज़राइल ने डंडे के जोर पर सीरिया से गोलान की पहाडिय़ां, जोर्डन का पश्चिमी किनारा, गाजा पट्टी और पूर्वी यरूशलम पर कब्जा कर लिया था। उस आक्रामक संस्कार से मंडित नेतन्याहू ने जब इज़राइली राजनीति में प्रवेश किया तो वे अरब-विरोधियों के प्रवक्ता बन गए। नरमपंथी प्रधानमंत्री यित्जाक राबिन की हत्या के बाद १९९६ में हुए चुनाव में इज़राइल की जनता ने घनघोर अरब-विरोधी नेतन्याहू को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया।
नेतन्याहू उस ‘ओस्लो एकार्ड’ के विरोधी थे, जो इज़राइल और फलिस्तीन के दो राज्यों को मान्यता दे रहा था। दो राज्यों का यह समाधान आतंकवाद की भेंट चढ़ गया और नेतन्याहू ने उस समझौते की धुर्रियां बिखेर दीं। उन्होंने इज़राइल द्वारा कब्जाए गए इलाकों को खाली करने से मना कर दिया, अरबों को इज़राइल से निकाल बाहर करने की मुहिम चलाई और फिलिस्तीनियों से समझौते के सारे रास्ते बंद कर दिए। नेतन्याहू ने अमेरिका से नजदीकी बढ़ाई और ईरान के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय अभियान छेड़ दिया।
उन्होंने ओबामा-काल में ईरान के साथ हुए परमाणु-समझौते का विरोध किया और ईरान के विरुद्ध परमाणु शस्त्रास्त्रों के प्रयोग की धमकी भी दी। उनके ईरान-विरोध ने अरब देशों के सुन्नी शासकों को इज़राइल के नजदीक ला दिया। अब इज़राइल के मिस्र, सउदी अरब, जोर्डन, यूएई, बहरीन, मोरक्को, सूडान आदि राष्ट्रों से भी ठीक-ठाक संबंध बन गए हैं। भारत और रूस के साथ भी इज़राइल के संबंध पहले से बेहतर बनाने में नेतन्याहू का विशेष योगदान है।
उन्हीं के प्रयत्न के फलस्वरूप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इज़राइल गए थे और वे खुद दो बार भारत आ चुके हैं। भारत के साथ इज़राइल के सामरिक, व्यापारिक और कूटनीतिक संबंध पहले से भी ज्यादा घनिष्ट होने की संभावना है लेकिन फलस्तीन का मामला अब ज्यादा उलझ सकता है, क्योंकि नेतन्याहू की सरकार में यहूदी उग्रवाद के प्रवक्ता भी शामिल हैं।
