दुनिया भर में महा शक्तियों का पावर गेम चल रहा है। चीन, अमेरिका और रूस जैसे देश अपनी ताकत का लोहा मनवाने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं। चाहे इसके लिए पूरी दुनिया की शांति और समृद्धि को आग ही क्यों न लगानी पड़े।
श्रीलंका जैसे विकासशील देशों की हालत ठीक वैसी हो गई है, जैसी चक्कियों में अनाज की होती है। ये देश कर्ज संकट में फंसे हुए हैं। इस संकट के कई पहलू ऐसे हैं, जिन पर उनका वश नहीं था। मसलन, कोरोना महामारी और यूक्रेन युद्ध। मगर उनका परिणाम उन्हें भुगतना पड़ रहा है। उनकी इस विपदा को दुनिया की दोनों बड़ी ताकतों ने अपने-अपने रणनीतिक हित साधने का अवसर बना लिया है। खास कर ऐसी हालत उन देशों की है, जिन्होंने पश्चिमी बाज़ार से साथ-साथ चीन से भी कर्ज़ ले रखा है। इस खबर पर गौर कीजिए। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने श्रीलंका के लिए २.९ बिलियन डॉलर का कर्ज मंजूर करने की घोषणा की। इसके बावजूद श्रीलंका की मुश्किलें कम नहीं हुई हैँ। वजह आईएमएफ का ये रुख है कि अगर कर्ज़ चुकाने की समय सीमा नए सिरे से तय करने (डेट रिस्ट्रक्चरिंग) के फॉर्मूले पर बाकी कर्ज़दाता देश राजी नहीं हुए, तो वह मंजूर हुए कर्ज़ का भुगतान नहीं करेगा। इस रुख़ का सीधा निशाना चीन है। ये आम धारणा है कि आईएमएफ अमेरिका के विदेश नीति उद्देश्यों के मुताबिक काम करता है। तो संभवत: अब वह इस कोशिश में है कि इसी बहाने श्रीलंका को चीन के प्रभाव से बाहर निकाल लिया जाए।
आईएमएफ की श्रीलंका गई टीम के प्रमुख पीटर ब्रिउअर ने कहा- ‘अगर कोई एक या कई कर्ज़दाता देश ऐसे आश्वासन देने पर राज़ी नहीं हुए, तो वास्तव में श्रीलंका का संकट और गहराएगा। उस स्थिति में श्रीलंका की कर्ज़ भुगतान क्षमता पर शक बना रहेगा।’
गौरतलब है कि पश्चिमी कर्ज़दाता देशों के समूह पेरिस क्लब की डिफॉल्टर देशों के बारे में नीति एक जैसी है। ये नीति आईएमएफ से मेल खाती है। लेकिन चीन की इस मामले में अलग नीति है। संभवत: चीन पश्चिम के मुताबिक अपनी नीति ढालने को तैयार नहीं होगा। तब श्रीलंका के पास एक ही रास्ता यह रह जाएगा- या तो वह संकट में फंसा रहे या चीन से अपना जुड़ाव खत्म कर ले। एक अन्य रास्ता पूरी तरह चीन के खेमे में शामिल हो जाने का है। लेकिन इस पर श्रीलंका में आम सहमति नहीं बनेगी। तो अब श्रीलंका क्या करेगा, इस पर दुनिया भर की निगाहें टिकी हैं।



