यों भारत हमेशा भाग्य भरोसे रहा है। हिंदुओं का इतिहास है कि वे कभी लंबी-सुरक्षित-अच्छे सफर की नियति लिए हुए नहीं रहे। बार-बार खंड-विखंड और पानीपत की लड़ाइयों से कुचले जाते रहे। मंजिल नहीं मिली। सन् १९४७ से नया सफर शुरू हुआ। वह सब बनाया जो एक राष्ट्र के लिए जरूरी होता है। मगर पहले दिन से हिंदुओं के मन में टीस रही कि वे जो चाहते थे, वह नहीं मिला। इतिहास का बदला पूरा नहीं हुआ। इसलिए सन् २०१४ में नरेंद्र मोदी की तख्तपोशी हिंदू मन का संतोष था कि अब दिन बदलेंगे। हिंदू वह सब कर सकेगा जो नहीं होता आया है। अच्छे दिए आएंगे। भारत का नया सफर, नई उड़ान।
और तब से अब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बतौर पायलट हिंदुओं को सफर का जो अनुभव कराते हुए हैं और मोदी, संघ परिवार और भक्तों को सत्ता, फ्री के राशन-पानी, और न्यू इंडिया बनाते हुए है उससे चुनाव की विजय गाथाएं बनते हुए है तो हिंदुओं का वह ऑटोमेटिक व्यवहार बना है कि वे जो चाहें, जो करें, जो खोजें उसकी तुरंत प्राप्ति। खोए हुए बाबा मिल गए। खोई हुई श्वेत आर्थिकी मिल गई। खोई हुई आत्मनिर्भरता मिल गई। मुसलमान के आगे दबा-झुका सिर खड़ा हो गया। हिंदुओं की विलुप्त विश्व गुरूता, उसका विश्व नेतृत्व बहाल हो गया। हिंदुओं का ज्ञान-विज्ञान, दया-करूणा, मानवता-शौर्य का दुनिया में झंडा!
इस बात का अर्थ नहीं है कि दुनिया क्या सोचती है, और १४० करोड़ लोगों का जीवन क्या है? असल बात नया सफर, नए तरह का सफर। हिंदुओं का मनमर्जी का सफर। सन् २०१४ में नरेंद्र मोदी की पायलट कमा्न से टेकऑफ हुआ विमान अंत में किस मंजिल के साथ सेफ लैंड करेगा यह बाद की बात है लेकिन उन्होंने जिस ऊंचाई, जिन स्थितियों में उड़ान बनवा दी है उसमें अब उन्हें कुछ करने की जरूरत ही नहीं है। उसमें न मंजिल फीड है और न विमान लैंड होना है। मोदी और उनकी सरकार, संघ परिवार और हिंदू सब उड़ते ही रहने हैं जब तक कि क्रैश न हो जाए। १४० करोड़ भारतीयों की उड़ान अब बिना मंजिल के है। कोई कहे कि हिंदू राष्ट्र की मंजिल है और सन् २०२९ या २०३४ में भारत बतौर हिंदू राष्ट्र सुख-शांति-संपन्नता का उपमहाद्वीप होगा या गृह युद्ध वाला इथियोपिया जैसा देश तो तय मानें ऐसी कोई निश्चित मंजिल और उसकी सुरक्षित लैंडिंग संभव ही नहीं है!
जो होगा वह हिंदुओं की मूल भाग्य भरोसे और नियति के इतिहास अनुसार होगा।
इस लंबे खुलासे के बाद पिछले एक सप्ताह की घटनाओं पर गौर करें। किसी भक्त को यदि ज्ञानवापी मस्जिद में बाबा मिल गए और देश, देश की छोटी-बड़ी अदालतें उबल गईं तो सब ऑटो मोड के कारण था। शेयर बाजार, रुपया और एलआईसी का खुला इश्यू पीटा तो यह सब क्या आर्थिकी के ऑटो मोड में नहीं था? अडानी-अंबानी के धंधे, मुनाफे की खबरें थीं तो वे होनी ही थीं। आर्थिकी और क्रोनी पूंजीवाद का बढऩा निरंतर ऑटो मोड में है और रहेगा। कांग्रेस की उदयपुर बैठक में राहुल गांधी का कुछ नही करना या नहीं होने देना कांग्रेस और विपक्ष के भी ऑटो मोड में उड़ते होने की प्रवृत्ति का प्रमाण है। किसी भी विषय पर, किसी भी क्षेत्र में, किसी भी स्तर पर भारत में ऐसा कोई वह काम नहीं होना है, जिससे विमान, सफर की दिशा और मंजिल बदले। क्योंकि सब कुछ तो यांत्रिकता और ऑटो मोड से है।
हिंदू और मुसलमान का भेद और लडऩा सदियों से है। और वह लड़ाई यदि अब हिंदू पलड़े के भारी होने से इतिहास और देश को दुरूस्त करने के मिशन में है तो स्वाभाविक है उस मिशन में बच्चा-बच्चा सेनानी है। काशी के जिस हिंदू को मस्जिद में शिवलिंग का बोध हुआ वह किसी के कहने से नहीं था। भक्त हिंदू अब जब भी किसी मस्जिद के सामने से गुजरता होगा तो उसके दिमाग में ऑटोमेटिकली यह ख्याल बनता होगा कि मेरे अंगने में यह क्यों? या फलां मस्जिद में मूर्ति या नीचे मंदिर!
तभी नरेंद्र मोदी और उनकी पायलटी व राजनीति की प्रोग्रामिंग बनाने वाली टीम की खूबी है जो हर हिंदू की कंडीशनिंग में सत्ता का बुलडोजर बैठ गया है। इसलिए हिंदू को बदला लेना ही लेना है। उसने इतिहास ठीक करने और देशद्रोहियों व पाकिस्तानियों को ठीक करने की न्यूटन गति पा ली है।