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नेहरू और जिन्ना के बीच पनपी दूरियों के कारण

नई दिल्ली, 15 अगस्त। नेहरू और जिन्ना दोनों को ही भारत और पाकिस्तान का शिल्पकार माना जाता है दोनों में कई समानताएं थीं। इसके बावजूद सैद्धांतिक रूप से दोनों की सोच अलग हो गई थी जिससे दोनों में काफी दूरी पनप गई थी। पाकिस्तान बनाने का सपना किसी और व्यक्ति ने देखा था लेकिन पाकिस्तान को हमेशा जिन्ना के नाम से जोड़कर देखा जाता है। जब से मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने एक मुस्लिम देश की संभावना के बारे में सोचना शुरू किया, जवाहरलाल नेहरू उनके सैद्धांतिक दुश्मन बन गए थे।
नेहरू ने इस विचार का हमेशा विरोध किया कि मुसलमान और हिंदू एक दूसरे से अलग हैं। उनके लिए हिंदुओं, मुसलमानों, सिखों और ईसाइयों का आपस में मिलना-जुलना ही भारत की असली पहचान थी। उनकी नज़र में भारत अमेरिका की तरह था जिसमें हर अलग संस्कृति को अपने-आप में आत्मसात करने की गज़ब की क्षमता थी।
नेहरू इस सोच के ख़िलाफ़ थे कि कोई आधुनिक देश धर्म पर भी आधारित हो सकता था। वो इस सोच को मध्ययुगीन मानते थे।
निसीद हजारी लिखते हैं , “नेहरू की नज़र में यह बहुत बड़ी विडंबना थी कि जिनका मुस्लिम मुद्दों से दूर-दूर का वास्ता नहीं था, जिन्हें बिल्कुल भी दबाया नहीं गया था, वे लोग एक मुस्लिम देश बनाने की वकालत कर रहे थे।”
हालाँकि नेहरू और जिन्ना एक दूसरे को पिछले 30 वर्षों से जानते थे लेकिन 40 का दशक आते-आते दोनों के बीच दूरियाँ न सिर्फ़ बढ़ीं, बल्कि निजी भी होती चली गईं। भारत छोड़ो आंदोलन में जेल में बंद रहने के दौरान नेहरू ने अपनी जेल डायरी में लिखा, “मुस्लिम लीग के ये नेता एक सभ्य दिमाग़ के अभाव का एक जीता-जागता उदाहरण हैं।” जिन्ना ने नेहरू के इन विचारों का जवाब उतनी ही कड़ी भाषा में दिया। उन्होंने कहा, “इस युवा नेता की भारत की आध्यात्मिक एकता और सभी समुदायों के बीच भाईचारे की सोच में बुनियादी गड़बड़ी है। नेहरू उस पीटर पैन की तरह हैं जो न तो कोई नई चीज़ सीखते हैं और न ही किसी पुरानी चीज़ को छोड़ते हैं।”
1937 के चुनाव में मुस्लिम लीग को मुसलमानों के पाँच फ़ीसदी से भी कम वोट मिले थे। इसके बावजूद जिन्ना ने मुस्लिम लीग को मुसलमानों का एकमात्र नुमाइंदा बताने का कोई अवसर नहीं छोड़ा। नेहरू ने शुरू में इसे गंभीरता से नहीं लिया।
जिन्ना के साथ नेहरू के पत्राचार हुए, लेकिन जब एक पत्र में जिन्ना ने नेहरू को लिखा, “मेरे लिए आपको अपने विचार समझा पाना अब मुश्किल हो चला है,” तोनेहरू ने जिन्ना को पत्र लिखना छोड़ दिया। 1943 में आज़ादी से चार साल पहले ही नेहरू का जिन्ना से इस क़दर मोहभंग हो चुका था कि वो उन्हें उनका पाकिस्तान देने के लिए तैयार हो गए थे।
भारत में ब्रिटेन के वायसराय लॉर्ड वैवेल को उम्मीद थी कि गठबंधन सरकार में नेहरू और जिन्ना कुछ महीनों तक एक साथ काम कर लें तो उनके बीच एक तरह की समझ-बूझ पैदा हो सकती है।
उसी को ध्यान में रख कर वैवेल ने अंतरिम सरकार में नेहरू के नेतृत्व में छह कांग्रेसियों, पाँच मुस्लिम लीग के सदस्यों और तीन छोटे अल्पसंख्यक समूहों के नुमाइंदों को मनोनीत किया था। लेकिन प्रयासों के बावजूद जब दोनों की मुलाकात हुई तो जिन्ना ने अपने चिर परिचित अंदाज में उन्हें टका सा जवाब दे दिया।
नेहरू को ये जानकर बड़ी ठेस लगी कि उनके महात्मा उनकी जगह क़ायद-ए-आज़म को प्रधानमंत्री बनाने के लिए तैयार हैं। गांधी जिन्ना को अच्छी तरह से समझते थे। वो जानते थे कि इस तरह का प्रस्ताव जिन्ना के अहम को कितना मीठा स्पर्श दे सकता है। लेकिन नेहरू ने माउंटबेटन से कहा कि यह सुझाव एकदम अव्यावहारिक है।
इसके बाद नेहरू और जिन्ना की सिर्फ़ एक बार मुलाक़ात हुई। भारत की आज़ादी के दो हफ़्तों के भीतर लाहौर में बढ़ रहे शर्णार्थियों की समस्याओं को सुलझाने जिन्ना खुद लाहौर पहुंचे थे। इसके 13 वर्षों बाद जीना का निधन हो गया था।

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