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आरबीआई बनाम सरकार: उर्जित पटेल के साथ विवाद में नेहरू की चिट्ठी से अपना पक्ष मजबूत करेगी मोदी सरकार

नई दिल्ली। कई बार मौजूदा मुश्किल से मुक्ति का रास्ता हमें इतिहास में मिलता है। मोदी सरकार भी रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के साथ चल रहे अनबन पर अपना पक्ष मजबूत करने के लिए इतिहास खंगाल रही है। टाइम्स ऑफ इंडिया पिछले सप्ताह से सरकार और आरबीआई के बीच खटास भरे संबंधों की परंपरागत प्रवृत्ति का विस्तृत अध्ययन कर रहा है। छानबीन के दौरान सरकार और आरबीआई के बीच खींचतान का उदाहरण 1937 में भी मिल गया, जब सर जॉन ऑब्सबॉर्न ने ब्याज एवं विनमय दरों के मुद्दे पर तत्कालीन उपनिवेशवादी सरकार के साथ मतभेदों के बीच इस्तीफा दे दिया था। लेकिन, वित्त मंत्रालय में अभी काबिज लोगों की नजरें देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के साथ हुई तीखी नोंकझोंक के बाद तत्कालीन आरबीआई गवर्नर सर बेनेगल रामा राव के इस्तीफे पर टिक गई हैं। अब वे कांग्रेस पार्टी द्वारा आरबीआई की स्वायत्तता को धूमिल करने का आरोप लगाकर सरकार पर किए जा रहे हमलों का असरदार जवाब देने में इस वाकये का इस्तेमाल कर सकते हैं।
सर बेनेगल रामा राव एक सिविल सर्वेंट थे जो आरबीआई के चौथे गवर्नर बने। उन्होंने 7.5 वर्षों की लंबी सेवा के बाद 1957 में इस्तीफा दे दिया। दरअसल, तब नेहरू ने तत्कालीन वित्त मंत्री टीटी कृष्णमाचारी के सुर में सुर मिलाते हुए स्पष्ट कर दिया था कि आरबीआई सरकार की विभिन्न गतिविधियों का ही एक भागीदार है। राव ने मतभेदों पर कृष्णमाचारी के व्यवहार में अक्खड़पन की शिकायत की। दोनों के बीच मतभेद एक बजट प्रस्ताव से शुरू हुए थे। टीटीके ने आरबीआई को बतौर वित्त मंत्रालय के ही एक ‘खंड (सेक्शन)’ के रूप में पेश किया और इसकी व्याख्या में इसे ‘आरक्षित (रिजर्व्ड)’ करार दिया। साथ ही, उन्होंने संसद में आरबीआई के बारे में यह संदेह भी व्यक्त किया था कि ‘क्या इसमें कुछ सोच-विचार करने की क्षमता भी है?’ राव को लिखे एक पत्र में नेहरू ने कहा, ‘यह (आरबीआई) सरकार को सलाह देने के लिए है, लेकिन इसे सरकार के पदचिन्हों पर चलना भी है।’ उन्होंने कहा कि गवर्नर को जब लगे कि अब उनके लिए पद पर बने रहना संभव नहीं है, तो वह इस्तीफा दे सकता है। उसके कुछ दिन बाद ही राव ने पद त्याग दिया।
नेहरू ने कहा कि केंद्रीय बैंक द्वारा अलग नीति पर इसलिए चलना ‘पूर्णतः असंगत’ होगा, क्योंकि वह सरकार के उद्देश्यों एवं तौर-तरीकों से सहमत नहीं है। नेहरू ने पत्र में लिखा, ‘आपने आरबीआई की स्वायत्ता पर जोर दिया है। निश्चित रूप से यह स्वायत्त है, लेकिन इसे केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों का पालन भी करना है। मौद्रिक नीतियों की निर्भरता निश्चित रूप से सरकार की व्यापक नीतियों पर ही होनी चाहिए। आरबीआई उन व्यापक नीतियों के दायरे में ही सलाह दे सकता है। यह सरकार के प्रमुख उद्देश्यों एवं नीतियों को चुनौती नहीं दे सकता।’ पत्र में नेहरू ने राव को कहा, ‘जब आपने मुझसे बात की थी, तो मैंने आपको बताया था कि नीति निर्माण का काम केंद्र सरकार का है और स्वाभाविक रूप से आरबीआई की नीतियां केंद्र सरकार की नीतियों की विरोधाभासी नहीं हो सकतीं। आपने इस पर हामी भी भरी थी। फिर भी मुझे आपके मेमोरेंड में अलग दृष्टिकोण मिला है।’ दरअसल, आरबीआई को लगता था कि टीटीके के बजट प्रस्ताव से ब्याज दरें प्रभावी तौर पर बढ़ जाएंगी, इसलिए उन्होंने सेंट्रल बोर्ड का एक प्रस्ताव सरकार को भेज दिया। 12 दिसंबर, 1956 को बोर्ड ने कहा, ‘बोर्ड का सरकार से अनुरोध है कि वह मौद्रिक ढांचे एवं नीति को विशेष रूप से प्रभावित करने वाले मुद्दों पर पहले आरबीआई के साथ बातचीत कर ले।’ नेहरू ने उसी दिन गवर्नर को पत्र लिखकर उनके ‘अनुचित व्यवहार’ की कड़ी आलोचना की। नेहरू ने कहा कि उनकी सोच केंद्र सरकार के खिलाफ आक्रोश से भरा है।
15 दिनों के अंदर राव ने नेहरू को जवाबी पत्र लिखा और कहा कि विभिन्न मुद्दों पर मतभेदों के बावजूद कोई बात आरबीआई से बाहर नहीं गई है। उन्होंने लिखा कि सरकार आरबीआई की सलाह को खारिज कर सकती है, हालांकि ‘तकनीकी और कई बार पेचीदे मौद्रिक मामलों’ पर कोई फैसला लेने से पहले इसे (आरबीआई को) सारे तथ्य और अपना नजरिया रखने का मौका दिया जाना चाहिए। सरकार ने बजट में आरबीआई की प्रमुख नीतिगत दर यानी बैंक रेट से डिस्काउंट पर लोन लेने के लिए बैंकों द्वारा इस्तेमाल किए जानेवाले इंस्ट्रूमेंट्स पर स्टांप ड्यूटी बढ़ाने का प्रस्ताव किया था। आरबीआई का कहना था कि ज्यादा स्टांप ड्यूटी से बैंक रेट आधा प्रतिशत बढ़ जाएगा। ब्याज दरों से लेकर नियमन तक, विभिन्न मुद्दों पर ज्यादातर सरकारों एवं केंद्रीय बैंक के बीच मतभेद उभरे थे, लेकिन मौजूदा विवाद इस हद तक पहुंच गया है कि वित्त मंत्रालय ने आरबीआई गवर्नर के साथ औपचारिक बातचीत की, जिसे रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ऐक्ट की धारा 7 के इस्तेमाल से महज एक कदम पीछे के तौर पर देखा जा रहा है। गौरतलब है कि आरबीआई के 83 वर्षों के इतिहास में सेक्शन 7 का इस्तेमाल कभी नहीं हुआ।

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