सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की संविधान पीठ ने विधायिका और न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्रों के बारे में संविधान में सीमा का पुनर्लेखन कर दिया है। उसने संविधान के अनुच्छेद १०५(२) की नई व्याख्या कर दी है, जिसके तहत संसद के अंदर का कथित भ्रष्ट आचरण अब न्यायिक जांच-परख के दायरे में आ जाएगा। अपने ताजा फैसले के जरिए उसने ‘पीवी नरसिम्हा राव बनाम स्टेट’ (यानी झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड) में १९९८ में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया है।
वह मामला जन-प्रतिनिधियों के कथित रिश्वत लेकर सदन के अंदर भाषण देने और मत डालने से संबंधित था। १९९८ में पांच जजों की संविधान पीठ ने कहा था कि सांसद और विधायकों पर इस तरह के मामलों में मुकदमा नहीं चलाया जा सकता, क्योंकि उन्हें संसदीय विशेषाधिकार का संरक्षण हासिल है। अब कोर्ट ने कहा है कि इस तरह के आचरण से संसदीय पवित्रता भंग होती है, इसलिए इसे संसदीय विशेषाधिकार का संरक्षण नहीं मिल सकता।
मोटे तौर पर कहा जाएगा कि कोर्ट की मंशा अच्छी है। लेकिन यह तथ्य भी अपनी जगह सही है कि लोकतंत्र में अधिकारों का बंटवारा एक बुनियादी तकाजा है। अगर शासन की एक संस्था दूसरे संस्था के अधिकार क्षेत्र में अपनी पैठ बनाने लगे, तो इसे समस्याएं पैदा हो सकती हैं। संविधान में जिस तरह संसदीय विशेषाधिकार का प्रावधान किया गया है, उसी तरह का संरक्षण न्यायपालिका को भी दिया गया है।
अनुच्छेद १२१ के तहत सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों के जजों के आचरण पर संसद में बहस नहीं हो सकती। अब यह सवाल उठेगा कि आखिर न्यायपालिका को यह संरक्षण क्यों मिले रहना चाहिए? कुछ वर्ष पूर्व एक प्रधान न्यायाधीश पर सुप्रीम कोर्ट के अंदर यौन उत्पीडऩ का आरोप लगा था। उस कांड की सामान्य आपराधिक न्याय प्रक्रिया के तहत जांच नहीं हुई, क्योंकि संबंधित जज को न्यायिक संरक्षण प्राप्त था। उस मामले पर संसद में भी चर्चा नहीं हो सकती थी। कोर्ट की मंशा यह है कि जन प्रतिनिधियों के भ्रष्ट आचरण पर रोक लगाई जाए। लोग इससे सहमत होंगे। लेकिन उनकी ऐसी ही आकांक्षा जजों के बारे में भी है।
