पंजाब-हरियाणा से लगे खनौरी बॉर्डर पर पुलिस कार्रवाई के बाद एक नौजवान किसान की मौत ने किसान आंदोलन के मौजूदा दौर को नाजुक मोड़ पर पहुंचा दिया है। यहां यह याद करने योग्य है कि २०२० में तीन कृषि कानूनों के खिलाफ खड़ा हुए और १३ महीनों तक चले बहुचर्चित किसान आंदोलन के समय पुलिस कार्रवाई से कोई मौत नहीं हुई थी। तब आंदोलन चला रहे संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व को इसका श्रेय दिया गया था कि उसने संयम और स्पष्ट रणनीति के साथ अपने अभियान का संचालन किया और आखिरकार जीत हासिल की। अब यही बात इस मोर्चे से अलग हुए संयुक्त किसान मोर्चा (गैर-राजनीतिक) के नेतृत्व के लिए नहीं कही जा सकती। बेशक पुलिस की तरफ से भी अनुपात से अधिक और अनुचित बल-प्रयोग किया गया है। इससे भी ‘दिल्ली चलो’ अभियान में शामिल किसानों में गुस्सा फैला है। मगर कुछ उग्रता नए गुट की रणनीति का भी हिस्सा है, जो संभवत: संयुक्त किसान मोर्चा को अप्रभावी दिखाकर कृषक मुद्दों पर अपना नेतृत्व स्थापित करना चाहता है। इस गुट ने किसानों की मांगों को तुरंत मनवा लेने की रणनीति अपनाई है।
मगर न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी करने वाले कानून और इस जैसी अन्य मांगों का देश की मौजूदा आर्थिकी से सीधा और तीखा अंतर्विरोध है। ऐसे में अनुमान लगाया जा सकता है कि इन मांगों को मानने के लिए सरकार को तुरंत मजबूर कर देने की रणनीति में टकराव की गुंजाइश शामिल है। ऐसे में आंदोलन के नेतृत्व से यह अपेक्षा स्वाभाविक है कि वह आंदोलन के तौर-तरीकों का स्पष्ट खाका लेकर चले और आंदोलन में शामिल लोगों पर नियंत्रण बनाए रखे। बीते बुधवार को खनौरी बॉर्डर पर की घटना के बाद आंदोलन नेतृत्व ने ‘दिल्ली चलो’ अभियान को दो दिन रोकने का उचित फैसला किया। इस बीच सरकार से पांचवें दौर की वार्ता का भी प्रस्ताव आया है। सरकार के पास पिछली वार्ता से आगे अब किसानों के लिए क्या पेशकश है, यह देखना महत्त्वपूर्ण होगा। ऐसे में अपेक्षित है कि आंदोलन नेतृत्व वार्ता में शामिल हो। उसके बाद की रणनीति वह तमाम परिस्थितियों पर समग्र विचार करने के बाद ही तैयार करे।
