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दादी-पिता से ज़्यादा नसीब वाले हैं राहुल गांधी

– पंकज शर्मा

मैं राहुल गांधी को भाग्यशाली मानता हूं कि उन्हें एक ऐसी कांग्रेस मिली हुई है, जो दस साल में दो-फाड़ नहीं हुई। राहुल नसीब वाले हैं कि बेमुरव्वत हो कर उन के बार-बार यह कहने पर भी कि ‘जिसे जाना है, जाए, जिसे रहना है, रहे’ सिर्फ़ एकाध दर्जन छोटे-मंझले-बड़े नेता ही उन्हें छोड़ कर गए और निन्यानबे फ़ीसदी कांग्रेसजन अब भी अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता पर डटे होने की वज़ह से उन के साथ हैं। यह किस्मत पा कर राहुल अपने को धन्य समझें-न-समझें, मैं उन कांग्रेसियों को धन्य मानता हूं, जो बिना उफ़ किए राहुल के तमाम प्रयोगों के गलियारों से कांग्रेस को गुजरते बीस साल से देख रहे हैं।
इन में से दस बरस कांग्रेस केंद्र की सत्ता में थी, इसलिए कांग्रेसियों के लबों पर लटके तालों का रहस्य हम समझ सकते हैं। मगर अब जब दस बरस से कांग्रेस अपने इतिहास के सब से निचले पायदान पर पड़ी है, तब भी अगर समूची कांग्रेस हर हाल में राहुल की ताल से अपनी ताल बेहिचक मिला रही है तो इस दृढ़ता का एक ही मतलब है कि कांग्रेसियों को राहुल की राह पर अखंड विश्वास है।
ऐसा भाग्य पाना आसान नहीं है। मुकद्दर की ऐसी सिकंदर तो राहुल की दादी इंदिरा गांधी भी नहीं थीं। ४६ साल पहले की कांग्रेस-पराजय में १५४ सीटें जीतने के बाद भी इंदिरा जी कांग्रेस को टूटने से नहीं बचा पाई थीं। फिर २०१४ में महज़ ४४ और २०१९ में सिर्फ़ ५२ सीटों पर सिकुड़ जाने वाली कांग्रेस टूटने से कैसे बच गई?
यह संजीदा सामाजिक-राजनीतिक अध्ययन का विषय है कि कांग्रेस के भीतर शिखर नेतृत्व के खिलाफ़ वैसा तूफ़ान क्यों नहीं उठा, जैसा इंदिरा जी के विरोध में साढ़े चार दशक पहले दिखाई दिया था? तब इंदिरा गांधी को तीन दिशाओं से घनघोर आक्रमणों का सामना करना पड़ा था। एक तरफ़ जनता पार्टी की सरकार उन्हें कुचलने पर आमादा थी। दूसरी तरफ़ देश भर में लोगों के गहरे गुस्से का आलम था। तीसरी तरफ़ कांग्रेस में अंदरूनी घमासान मचा हुआ था। इस परिदृश्य की एकदम उलटबांसी हम ने दस साल पहले देखी, जब बेहद शर्मनाक हार के बाद भी पूरी कांग्रेस अभूतपूर्व आस्था के साथ सोनिया गांधी और राहुल के साथ खड़ी रही।
नज़दीकी लोग इंदिरा जी को भी छोड़ गए थे। नज़दीकी लोग राहुल को भी छोड़ गए। दोनों को छोड़ कर गए लोगों की क़द-काठी में फ़र्क हो सकता है। मगर तब भी जो ज़्यादा अपने थे, वे ही डंक-मार निकले थे और अब भी जो बेहद बगलगीर थे, वे ही। तब भी, बेगाने-से समझे गए ही कांग्रेस के लिए जूझे और आज भी वे ही अपने-अपने मोर्चों पर जमे हुए हैं। इंदिरा जी के ज़माने की कांग्रेस कार्यसमिति के २१ सदस्यों में से सिर्फ ५ ही उन के साथ रह गए थे। कांग्रेस संसदीय दल का भी भारी बहुमत उन के खिलाफ़ था। आज तो पूरी की पूरी कार्यसमिति और पूरा का पूरा संसदीय दल राहुल के पीछे खड़ा है।
१९७७ के दिसंबर में इंदिरा जी ने कार्यसमिति और संसदीय दल से इस्तीफ़ा दे दिया था। अलग से एक राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करने के लिए संचालन समिति बनी। १ और २ जनवरी १९७८ को दिल्ली में हुए सम्मेलन के लिए कांग्रेस कार्यसमिति के चार सदस्यों -ं पी.वी. नरसिंहराव, बूटा सिंह, अनंत प्रसाद शर्मा और श्रीमती मर्गाथम चंद्रशेखर – की तरफ़ से देश भर के वरिष्ठ कांग्रेसियों को निमंत्रण भेजे गए। कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष ब्रह्मानंद रेड्डी को भी आमंत्रण भेजा गया। पांच हज़ार प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। सम्मेलन की अध्यक्षता पंडित कमलापति त्रिपाठी ने की। कांग्रेस (इं) का जन्म हुआ। इंदिरा जी नई पार्टी की सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुन ली गईं। अगले महीने फरवरी में चार राज्यों – कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और असम – की विधानसभाओं के चुनाव हुए।
कर्नाटक में कांग्रेस (इं) को १४९ का भारी बहुमत मिला। जनता पार्टी को ५९ सीटें ही मिली। जिस कांग्रेस को इंदिरा जी ने तोड़ दिया था, उसे महज़ २ सीटें ही मिलीं। आंध्र प्रदेश में भी इंदिरा जी की पार्टी को १७५ सीटें मिलीं, जनता पार्टी को ६० और कांग्रेस (ओ) को सिर्फ़ ३० सीटें मिलीं। महाराष्ट्र में वोट दोनों कांग्रेस पार्टियों के बीच बंट गए और जनता पार्टी ९९ सीटों के साथ सब से बड़ा दल बन गई। इंदिरा जी की कांग्रेस को ६२ और दूसरी कांग्रेस को ६९ सीटें मिलीं। असम में इंदिरा जी को ८ सीटें ही मिलीं। दूसरी कांग्रेस ने २६ और जनता पार्टी ने ५३ सीटें जीतीं। असम के मतदाताओं ने तब इंदिरा जी के बजाय देवकांत बरुआ और हितेश्वर सैकिया जैसे नेताओं पर ज़्यादा भरोसा जताया था।
नई पार्टी बनाने के डेढ़ महीने और लोकसभा में हार के एक साल के भीतर इंदिरा जी ने तीन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बना लीं और दो बरस बाद दनदनाते हुए वे केंद्र की सरकार में भी लौट आईं। ज़ाहिर है कि विजयमाला ने रंगबदलू कांग्रेसियों के रंग फिर बदल दिए। मगर अब तो पिछले दस साल में कांग्रेस अलग-अलग प्रदेशों के विधानसभा चुनाव ४० बार हार चुकी है। ऐसे में भी राहुल के पीछे खड़े कांग्रेसी क्या आप को इंदिरा जी के ज़माने के कांग्रेसियों से भी ज़्यादा प्रतिबद्ध नहीं लगते हैं? १९७७ में सरकार से हटने के बाद अगर इंदिरा जी १९८७ तक सत्ता में नहीं लौट पातीं, और १९९२ तक भी केंद्र में उन की वापसी के कोई आसार दिखाई नहीं दे रहे होते, और विधानसभाओं के चुनाव भी वे चालीस बार हार गई होतीं, तो उस दौर की कांग्रेस में क्या हो रहा होता?
राहुल के पिता राजीव गांधी को भी लोकसभा में ४१४ सीटें मिलने के बावजूद ढाई साल के भीतर ही अंदरूनी चुनौतियों का सामना शुरू करना पड़ा था। उन के पाले-पोसे नए-नवेले भी अपने असली रंग दिखलाने लगे थे। राजीव भी कांग्रेस को टूटने से बचा नहीं पाए थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह और आरिफ़ मुहम्मद खान ने नया राजनीतिक दल – जनमोर्चा – बना लिया था। फिर जनता दल बना। बाद में द्रमुक, तेलुगु देशम और असम गण परिषद वगैरह के सहयोग से विश्वनाथ प्रताप सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार बनी। चली महज़ ३४३ दिन, मगर कांग्रेस के लोकसभा में १९७ सांसद होने के बावजूद राजीव गांधी को तो विपक्ष में ही बैठे-बैठे अपनों का विरोध भी झेलना पड़ा था।
ऐसे में ४४ और ५२ सीटों वाले राहुल को कांग्रेस के भीतर मिल रहे अपार स्नेह का बीजगणित क्या है? क्या वे कांग्रेसजन के लिए अपनी दादी और पिता से भी बड़े आस्था-केंद्र हैं? क्या आज के मोशा-दौर में वे जिस शुचिता-मूलक सियासत की स्थापना के रास्ते पर चल रहे हैं, वह कांग्रेसजन के लिए विश्वास-धुरी है? क्या कांग्रेस के कायाकल्प और पुनरुत्थान को ले कर राहुल की क्षमता पर कांग्रेसजन का अविचलित यक़ीन इस की बुनियाद में है? क्या सोनिया गांधी की भलमनसाहत में कांग्रेसजन के भरोसे का परावर्तन राहुल को शक्तिमान बनाए हुए है? क्या नरेंद्र भाई मोदी की फौलादी राजनीतिक शैली की बिसात पर खुद के लिए किसी स्वतंत्र भूमिका की अनुपस्थिति ने ज़्यादातर कांग्रेसियों को राहुल के समक्ष नतमस्तक बनाए रखा है? जो भी है। राहुल भाग्यवान हैं कि उन्हें ऐसी कांग्रेस मिली है, जो उन के प्रति घनीभूत वात्सल्य, अनुरक्ति और चाह से सराबोर है। ईश्वर कांग्रेसजन के इस भावभीनेपन को दीर्घायु प्रदान करें!

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