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जातीय टकराव की ओर

यह तो साफ है कि भारत में आरक्षण अब सामाजिक न्याय या पिछड़े तबकों के लिए प्रगति का रास्ता खोलने वाली नीति से ज्यादा एक भावनात्मक और प्रतीकात्मक मुद्दा रह गया है। जब ऐतिहासिक रूप से जातीय आधार पर वंचित ना रहे तबके भी आरक्षण मांगने लगें और सरकारें उस मांग को स्वीकार भी करने लगें, तो यही कहा जाएगा कि आरक्षण वोट बैंक के आधार पर सौदेबाजी का एक जरिया बन गया है। वरना, महाराष्ट्र में राजनीति से लेकर विभिन्न सामाजिक स्तरों पर दबदबा रखने वाले मराठा समुदाय के आरक्षण की मांग को स्वीकार करने के लिए कृत्रिम आधार तैयार नहीं किया जाता- खासकर उस हाल में जब इससे संबंधित एक निर्णय को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया था।
बहरहाल, महाराष्ट्र की भाजपा नेतृत्व वाली सरकार ने इस समुदाय को आरक्षण देने का रास्ता जैसे-तैसे ढूंढ लिया है। फैसला हुआ कि न सिर्फ ओबीसी श्रेणी में शामिल इस समुदाय के कुनबी कहे जाने वाले हिस्से को आरक्षण दिया जाए, बल्कि उन लोगों को भी यह लाभ मिले, जिनसे इस समूह के लोगों के खून के रिश्ते बने हैं।
इस तरह आरक्षण से लाभान्वित होने वाले मराठा परिवारों की संख्या काफी बढ़ जाएगी। मगर इस निर्णय से ओबीसी नेता खफा हो गए हैं। यहां तक कि महाराष्ट्र में मंत्री छगन भुजबल और केंद्र में मंत्री नारायण राणे ने अपने ही गठबंधन की राज्य सरकार पर हमला बोल दिया है। ओबीसी नेताओं ने आज यानी तीन फरवरी को ओबीसी महारैली करने का एलान किया है। इन नेताओं की शिकायत है कि राज्य सरकार के ताजा फैसले से ओबीसी कोटे के आरक्षण में मराठा सेंध लगा लेंगे।
उधर मराठा आरक्षण की मांग का चेहरा बन कर उभरे जरांगे पाटील ने घोषणा कर रखी है कि जब तक राज्य सरकार के ताजा निर्णय पर अमल शुरू नहीं हो जाता, वे आंदोलन जारी रखेंगे। इस तरह राज्य में जातीय तनाव और टकराव की आशंका फिर से सुलग उठी है। दरअसल, जिन मुश्किलों की वजह कृषि का अलाभकारी होना, रोजगार का अभाव और शिक्षा का गिरता स्तर है, उनका हल कहीं और ढूंढने की कोशिश ऐसी ही स्थिति को जन्म दे सकती है।

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