दुनिया ने गुजऱे हुए कल के दु:ख और आने वाले कल की आशा के मिलेजुले भाव के साथ नए साल में प्रवेश कर लिया है। उम्मीद है, दुनिया को कि नया साल २०२३ से बेहतर होगा! वह उसे बेहतर बनाने के लिए प्रयास करने को तत्पर भी है। युद्ध न हों, लोग सद्बुद्धि और कॉमन सेंस से काम लें, क्लाइमेट चेंज से होने वाला विनाश केवल एक दुस्वप्न बना रहे, न कि यथार्थ बने – और दुनिया को ऐसे नेता मिलें जिन्हें निरंकुश सत्ता की भूख न हो।
व्यक्तिगत तौर पर मेरे, आपके और मेरे-आपके जैसे बहुत से लोगों के न्यू ईयर संकल्पों की सूची में शामिल होगा अपना स्वास्थ्य बेहतर बनाना, ज्यादा फिट, समझदार और समृद्ध बनना, देना सीखना, धैर्यवान बनना और सबसे बढ़कर, ज्यादा खुश रहना। और इस सुबह हमने अपने कुछ पुराने न्यू ईयर संकल्प दोहराए होंगें, कुछ नए लिए होंगे, कुछ को नया कलेवर दिया होगा। इस प्रकार संकल्पों का नया चक्र शुरू हुआ होगा। संभावना यही है कि एक हफ्ते बाद हम में से ज्यादातर को यह याद भी नहीं रहेगा कि हमने क्या संकल्प लिया था। मगर यह परंपरा का तकाजा है कि न्यू ईयर पर नए संकल्प लिए जाएं और यह परंपरा निश्चित ही बेबीलोन की सभ्यता जितनी पुरानी है।
हां, करीब चार हजार साल पुरानी बेबीलोन की सभ्यता वह सबसे पुरानी मानव बसाहट है जिसके बारे में हमें पता है कि वहां नए साल का जश्न मनाया जाता था। उनका नया साल जनवरी में नहीं बल्कि मार्च के मध्य में शुरू होता था, जब फसलें बोई जाती थीं। बारह दिन तक चलने वाले नए साल के जश्न में जीवन के चक्र की नई शुरुआत का उत्सव मनता था, जिसे अकीतू कहा जाता था। अकीतू से ही नए कृषि कैलेंडर की शुरूआत होती थी। अकीतू के दौरान ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए लोग वायदा करते थे कि वे अपने कर्ज चुकाएंगे और जो चीजें उन्होंने दूसरों से उधार ली हैं, उन्हें वापिस करेंगे। जो बेबीलोनवासी अपने वायदे निभाते थे, उन्हें ईश्वर का आशीर्वाद मिलता था और जो नहीं, उन्हें ईश्वर के कोप का सामना करना पड़ता था। जाहिर सी बात है कि कोई नहीं चाहता था कि ईश्वर उस पर कुपित हों।
ऐसे ही प्राचीन मिस्र के निवासी नील नदी के देवता हापी को बलि चढ़ाकर जुलाई में अपने नए साल का आगाज़ करते थे। जुलाई में नील में हर साल आने वाली बाढ़ का पानी उतरता था और अपने पीछे अत्यंत उपजाऊ मिट्टी छोड़ जाता था। हापी की आराधना करके और उन्हें बलि चढ़ाकर मिस्रवासी उम्मीद करते थे कि आने वाले साल में उनके सितारे बुलंद रहेंगे, फसलें लहलहाएंगी और उनकी सेनाओं को एक के बाद एक जीत हासिल होगी।
ऐसा ही कुछ प्राचीन रोम में भी होता था मगर एक अलग तारीख पर। ४६ ईसा पूर्व में सम्राट जूलियस सीजर, जिन्हें सुधार और परिवर्तन लाने का बहुत शौक था, ने कैलेंडर से थोड़ा छेड़छाड़ कर १ जनवरी को नए साल का पहला दिन बना दिया। साल के पहले महीने का नाम रोमन देवता जेनस के नाम पर जनवरी रखा गया। दो मुंह वाला जेनस शुरूआत और अंत का देव था और दरवाजों और मेहराबों में बसता था। जनवरी का महीना रोमवासियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण था। नए साल के जश्न के दौरान वे जेनस की पूजा करते थे, उसे बलि चढ़ाते थे और वायदा करते थे कि आने वाले साल में वे उत्तम आचरण करेंगे।
परंतु ईसाईयों को रोमन सभ्यता की बुतपरस्ती बिल्कुल पसंद नहीं थी और इसलिए यूरोप में मध्यकाल में धार्मिक महत्व के दिनों जैसे क्रिसमस और फीस्ट ऑफ अन्नसीएशन (जिस दिन मरियम को यह पता चला था कि वे ईसा मसीह की मां बनेंगी) से नया साल शुरू करने की जुगत भिड़ाई गई। क्रिसमस २५ दिसंबर को मनाया जाता है और फीस्ट ऑफ अन्नसीएशन २५ मार्च को। इस परिवर्तन से नए साल के संकल्पों में भी बदलाव आया। उन पर धार्मिक कलेवर चढ़ गया। नए साल के पहले दिन आपसे यह अपेक्षा की जाती थी कि आप पिछले साल में की गई भूलों को याद करें। यह संकल्प लें कि भविष्य में आप बेहतर जीवन बिताएंगे। सत्रहवीं सदी में स्काटलैंड में रहने वाली एक महिला ने अपनी डायरी में लिखा था कि वह अपने नए साल के संकल्प बाईबल से लेती है जैसे “मैं किसी को ठेस नहीं पहुचाऊंगी”।
इस तरह के धार्मिक वायदे आज के न्यू ईयर संकल्पों के पूर्वज थे। आधुनिक काल में वैश्विकरण हुआ और अब सोशल मीडिया ने हमारी जिंदगी के हर पहलू में घुसपैठ कर ली है। अब नए साल के संकल्प धर्मनिरपेक्ष बन गए हैं। हिन्दू, मुसलमान, अनीश्वरवादी, नास्तिक सभी नए साल पर संकल्प लेते हैं। यह बात अलग है कि एक जनवरी को लिया गए संकल्प का पालन सात जनवरी तक भी जारी नहीं रहता।
एक बात और। हम अपनी परंपराएं और अपना नववर्ष भूल गए हैं। मुझे तो चैत्र के शुक्ल पक्ष के पहले दिन नए साल का संकल्प लेना ज्यादा अच्छा लगता है। यह दिन मार्च-अप्रैल में आता है जब मौसम खुशनुमा होता है, धूप भली-सी लगती है और पेड़-पौधे खिले-खिले से होते हैं। मगर जो सब कर रहे हैं वह हमें भी करना ही पड़ता है और इसलिए हम सभी ने ठंडी, कोहरे से भरी रात में जाम से जाम टकराए और नए साल का स्वागत किया।
बहरहाल, जैसे-जैसे एक जनवरी सभी के नए साल की शुरूआत बनती गई, वैसे ही नए साल के संकल्पों की प्रकृति भी बदलने लगी। अब उनमें धार्मिकता का पुट नहीं बचा। अब कोई अपने ऋण चुकाने और किसी को ठेस न पहुंचाने जैसे संकल्प नहीं लेता। अब तो सब कुछ ‘मैं’ और ‘मेरे’ के आसपास घूमता है। आज सुबह उठने के बाद आपने जब अपना इंस्टा या एक्स एकांउट खोला होगा (दिन की शुरूआत मोबाइल की स्क्रीन निहारने से न करने के पिछली रात के संकल्प के बावजूद) तो आपने देखा होगा कि आपके मित्रों ने कुछ इस तरह के संकल्प लिए हैं – “मैं अपने से प्यार करूंगा”, “मैं खुद पर दया करूंगा”, “मैं अपनी खुशियों को प्राथमिकता दूंगा”, “मैं खुद के प्रति कृतज्ञ रहूंगा” आदि, आदि। मैं तो यह मानती हूं कि सबसे बढिय़ा संकल्प यही है कि कोई संकल्प न लिया जाए। जैसा कि वर्जीनिया वुल्फ ने १९३१ में अपनी डायरी में लिखा था “मेरा पहला संकल्प यही है कि मैं कोई संकल्प नहीं लूंगी”।
मगर जैसा कि मैंने पीछे भी लिखा है, परंपरा का निर्वहन तो करना ही पड़ता है। और इसलिए मैंने यह संकल्प लिया है कि २०२३ की तरह २०२४ में भी मैं हर दिन कुछ न कुछ लिखूंगी। और मुझे यह उम्मीद भी है कि २०२४ में ज्यादा से ज्यादा लोग ज्यादा से ज्यादा पढ़ेंगे।
हैप्पी रीडिंग।
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