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उत्तर दक्षिण का अर्थहीन विवाद

जो (कु)तर्क रविवार शाम से सोशल मीडिया पर बहुचर्चित है, डीएमके के नेता डीएनवी सेंतिलकुमार ने उसे भारतीय संसद में कह दिया। (कु)तर्क यह है कि दक्षिण भारत प्रगतिशील और विकसित है, इसलिए वहां भारतीय जनता पार्टी चुनाव नहीं जीत पाती। जबकि उत्तर भारत “गोबर पट्टी” या “गौ मूत्र प्रदेश” है, इसलिए वह हिंदुत्ववादी भाजपा का गढ़ बना हुआ है। यह चर्चा रविवार को चार राज्यों के आए चुनाव नतीजों के बाद आगे बढ़ी। रविवार को दक्षिण भारत के तेलंगाना में कांग्रेस विजयी रही, जबकि हिंदी भाषी राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा को बड़ी जीत मिली। मगर क्या चुनाव नतीजों को इस रूप में समझना सही नजरिया है?
प्रश्न है कि क्या कर्नाटक दक्षिण भारत में नहीं है, जहां से पिछले दो लोकसभा चुनावों में भाजपा को २८ में २५ तक सीटें मिली हैं? और तेलंगाना में इसी बार भाजपा के वोट प्रतिशत बढ़कर लगभग दो गुना हो गया, जबकि उसकी सीटें एक से बढ़कर आठ तक पहुंच गईं। तो इसे किस रूप में देखा जाएगा?
सेंतिलकुमार ने बाद में माफी मांग ली, लेकिन उनकी जैसी सोच वाले लोगों को यह भी बताना चाहिए कि जब डीएमके अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में शामिल हुई थी, तब क्या उसने ऐसा “गौ मूत्र” को अपना कर किया था? और अगर अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को दक्षिण भारत से पिछली बार से अधिक सीटें मिलीं (जिसकी संभावना है), तो क्या यह कहा जाएगा कि दक्षिण भारत में भी “गौ मूत्र” का प्रसार हो रहा है? कहने का तात्पर्य यह कि राजनीतिक परिघटनाओं को इस रूप में देखना सिर्फ इन्हें समझ सकने की अपनी अयोग्यता और उससे पैदा हुए असंतोष को जाहिर करता है। बेशक भाजपा की विचारधारा हिंदुत्व है, जिसमें हिंदी भाषा की प्रमुखता का विशेष स्थान है। इसके प्रति अभी या भविष्य में अहिंदी भाषी राज्यों में विरोध भाव पैदा हो सकता है। जबकि हिंदी भाषी प्रदेशों में यह एजेंडा भाजपा के लिए एक हद तक लाभदायक साबित हो सकता है। इस रूप में हिंदी भाषी और अहिंदी भाषी राज्यों में अंतर्विरोध उभर सकते हैं। मगर इसे प्रगतिशीलता बनाम रूढिवाद के रूप में देखना एक विवेकहीन नज़रिया है।

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