बीपी गौतम
दीपावली आते ही पिछले कुछ वर्षों से शम्बूक जीवित हो जाता है … निरर्थक बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिये पर, आज बात करने का मन कर आया … श्रीराम में अकाट्य आस्था रखने वाले यह स्वीकार ही नहीं करते थे कि शम्बूक जैसा कुछ था … वहीं निंदक कहते हैं कि शूद्र मारा तो, काहे के राम … मैं खंडन नहीं करता … पहली बात तो रामायण में ही विषय है … दूसरी बात दंतकथा भी होती, फिर भी नहीं नकारा जा सकता था … क्योंकि … इतना कोरा झूठ, इतनी लंबी यात्रा नहीं कर सकता … खैर … आलोचना का मुख्य बिंदु है कि राम सर्व-हितकारी नहीं थे … ? … इस बात को समझने से पहले, ऐसे जानिये कि सेना और पुलिस को संगठन बनाने का अधिकार नहीं है … पिछले दिनों एक सिपाही ने संगठन को रजिस्टर्ड कराने का प्रयास किया तो, उसके विरुद्ध त्वरित कड़ी कार्रवाई कर दी गई … अब हजार वर्ष बाद कोई कहे कि उन दिनों में स्वतंत्रता नहीं थी, इतनी गुलामी थी कि सिपाहियों को संगठन बनाने तक का अधिकार नहीं था … पहले मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री से लेकर अंतिम तक सब तानाशाह थे, इस मुद्दे पर सबकी समान राय थी … ऐसा लिखते समय सिपाहियों की दो-चार समस्याओं को भी कोड कर दिया जाये तो, हजार वर्ष बाद के लोग आज के शासकों को बुरा ही मानेंगे … जबकि … आप वर्तमान में देख रहे हैं कि कितना न्याय या, अन्याय हो रहा है … आज हम समझते हैं कि इनका संगठन बनने का मतलब है व्यवस्था का गड़बड़ा जाना … व्यवस्था ध्वस्त होने की कल्पना में ही इनका संगठन न बनना, न्याय पूर्ण बात है … हो सकता है कि सिपाहियों की दृष्टि से आज भी बात न्याय पूर्ण न हो पर, यहाँ समाज को वरीयता दी जायेगी, न कि सिपाहियों को … तो … शम्बूक वाला घटनाक्रम इसी टाइप का था, इसीलिए श्रीराम की निंदा समकालीन साहित्यकार नहीं कर पाये … इसीलिए वाल्मीकि ने भी शम्बूक वध का उल्लेख करने के बावजूद श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम ही लिखा है वरना, वे निंदा अवश्य करते … इसके अलावा श्रीराम ने शूद्रों को ही संगठित कर के सेना बनाई थी, शबरी के झूठे बेर खाये थे, यह सबको पता ही है, इससे स्पष्ट है कि उन्हें शूद्रों से व्यक्तिगत तौर पर कोई घृणा नहीं थी … अब दूसरा बिंदु है कि उस समय शूद्र को तप करने का अधिकार नहीं था … तो … शूद्रों को तप करने का अधिकार सदैव था … रामायण काल से भी पहले की बात है, जो आज भी लिखित में हमारे पास है … जैसे कि विज्ञान ही मान चुका है वेद सबसे प्राचीन हैं … उस वेद में ही लिखा है … ऋग्वेद में लिखा है पञ्च जना मम … अर्थात, पांचों मनुष्य (ब्राह्मण , क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र एवं अतिशूद्र निषाद) मेरे यज्ञ को प्रीति पूर्वक सेवें, पृथ्वी पर जितने मनुष्य हैं, वे सब ही यज्ञ करें … यजुर्वेद में लिखा है कि तपसे शुद्रम … अर्थात, बहुत परिश्रमी, कठिन कार्य करने वाला, साहसी और परम उद्योगों अर्थात तप को करने वाले आदि पुरुष का नाम शुद्र है … इसी में लिखा है कि नमो निशादेभ्य … अर्थात, शिल्प-कारीगरी विद्या से युक्त जो परिश्रमी जन (शुद्र/निषाद) हैं, उनको नमस्कार अर्थात, उनका सत्कार करें … इसी में लिखा है कि रुचं शुद्रेषु … अर्थात, जैसे ईश्वर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र से एक समान प्रीति करता है, वैसे ही विद्वान लोग भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र से एक समान प्रीति करें … बृहदारण्यक उपनिषद् में लिखा है कि यह शुद्र वर्ण पूषण अर्थात, पोषण करने वाला है और साक्षात् इस पृथ्वी के समान है, क्योंकि जैसे यह पृथ्वी सबका भरण-पोषण करती है, वैसे शुद्र भी सबका भरण-पोषण करता है … अब द्वापर युग में आ जाईये … श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे पार्थ ! जो पाप योनि स्त्रियां, वैश्य और शुद्र हैं, यह भी मेरी उपासना कर परमगति को प्राप्त होते हैं … अब रामायण काल की ही बात कर लेते हैं तो, वाल्मीकि रामायण में वाल्मीकि कहते हैं कि इस रामायण को पढ़ने से (स्वाध्याय से) ब्राह्मण बड़ा सुवक्ता ऋषि होगा, क्षत्रिय भूपति होगा, वैश्य अच्छा लाभ प्राप्त करेगा और शुद्र महान होगा … कलयुग में तो हो ही … इसमें तो देख-समझ ही रहे हो तो, इसकी क्या बताना ..।



