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इंडिया या भारत : सहमति आवश्यक

हाल ही में भारत में शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली सरकारी संस्था राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की एक समिति ने सुझाव दिया है कि पाठ्य पुस्तकों में अपने देश का नाम हर जगह इंडिया के स्थान पर भारत लिखा जाए। अगर इस सुझाव का एक खास संदर्भ नहीं होता, तो इस पर विवाद या असहमति की कोई गुंजाइश नहीं होती। आखिर भारतीय संविधान में इस देश का नाम भारत और इंडिया दोनों लिखा है। इन दोनों में से किसी नाम का उपयोग संवैधानिक, कानूनी और उचित है। लेकिन ध्यान अगर इन नामों के उपयोग के संदर्भ पर दें, तो एनसीईआरटी कमेटी की ये पहल विवादास्पद मालूम पडऩे लगती है।
संदर्भ से जुड़ी बात यह है कि भारत एक विशाल और बहुलता भरा देश है। इस देश पर इसके प्रत्येक नागरिक का समान अधिकार है। इसलिए इस देश का नाम क्या हो, उसकी पहचान कैसी हो, आदि जैसे सवालों पर हर व्यक्ति की राय समान महत्त्व रखती है। संविधान निर्माण की प्रक्रिया पर लिखी गई किताबों में इस बात का उल्लेख है कि संविधान सभा में देश के नाम पर तीखी और गरमा गर्म बहस हुई थी।
इसके बावजूद संविधान सभा के सदस्यों के बीच इस पर आम सहमति नहीं बन सकी। तो उसका रास्ता संविधान के पहले वाक्य में इंडिया डैट इज भारत लिख कर निकाला गया। आज लगभग ७५ साल भी इस प्रश्न पर देश आम सहमति नहीं है, यह बात इस संबंध में हाल में नरेंद्र मोदी सरकार की तरफ से हुई पहल पर विभिन्न क्षेत्रों से आई प्रतिक्रियाओं से स्पष्ट है। इसलिए सरकार और उसकी एजेंसियों की दिशा में हो रही पहल एकतरफा नजर आती है और यह धारणा बनी है कि यह देश पर सत्ताधारी पार्टी की विचारधारा के मुताबिक एकरूपता थोपने की परियोजना का हिस्सा है। जाहिर है, ऐसी धारणाएं देश के दीर्घकालिक हित में नहीं हैं।
लोकतंत्र का मूल तत्व यह है कि उस व्यवस्था में सभी हितधारकों को यह महसूस होता है कि सिस्टम को चलाने में वे सहभागी हैं। इसलिए बेहतर होगा कि केंद्र सरकार ऐसी धारणा ना बनने दे, जिससे किसी समुदाय या व्यक्ति-समूह को यह महसूस हो कि उसके ऊपर कोई नाम थोपा जा रहा है।

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