भुखमरी और गरीबों को लेकर वैश्विक स्तर पर जारी होने वाले लगभग हर सूचकांक को भारत सरकार उसे तैयार करने की विधि पर सवाल उठाते हुए खारिज कर देती है, इसलिए अब उसके एतराज को खुद भारत में भी बहुत से लोग अब गंभीरता से नहीं लेते। गौरतलब है कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स (वैश्विक भूख सूचकांक) तैयार करने वाली संस्थाओं- आयरलैंड की कंसर्न वर्ल्डवाइड और जर्मनी की वेल्ट हंगरहाइफ ने भारत सरकार की आपत्तियों को बिंदुवार खारिज करते हुए कहा है कि उसकी रिपोर्ट १२५ देशों के बारे में है, लेकिन उस पर एतराज सिर्फ भारत ने जताया। जिन आंकड़ों के आधार पर उन्होंने सूचकांक में भारत को १११वे स्थान पर रखा, उनके स्रोत उन्होंने सार्वजनिक कर दिए हैं। और उनमें ज्यादातर आंकड़े खुद भारत सरकार के हैं। फिर दोनों संस्थाओं ने कहा है कि वह अपनी रिपोर्ट २००६ से जारी कर रही है, जिसकी पहले समकक्ष संस्थाओं के विशेषज्ञ समीक्षा करते हैं। इसीलिए कभी उसकी रिपोर्ट विवादास्पद नहीं रही। दरअसल, भारत में रहने वाले लोगों का आम तजुर्बा भी वही है, जो यह रिपोर्ट हमें बता रही है।
देश में उपभोग के घटते स्तर, प्रति व्यक्ति अनाज की घटती उपलब्धता, और आम पोषण की कमी का नतीजा लंबाई की तुलना में कम वजन, उम्र की तुलना में कम लंबाई और रक्तक्षीणता से ग्रस्त महिलाओं और बच्चों की संख्या बढऩे के रूप में सामने आ रहा है। सरकार ऐसी रिपोर्टों का खंडन करने के लिए उन कल्याण योजनाओं का तर्क देती है, जो उसने वंचित तबकों के लिए चला रखी हैं। विकास अर्थव्यवस्था की भाषा में इसे इनपुट कहा जाता है। जबकि ज्यादा विश्वसनीय रिपोर्टें आउटपुट के आधार पर तैयार की जाती हैँ। यानी जो अंतिम परिणाम मौजूद है, इनमें उस पर ध्यान दिया जाता है। वैसे भी जब तक लोगों के पास स्थायी रोजगार और परिवारों के पास स्थिर आमदनी का जरिया नहीं हो, सरकारी योजनाएं लोगों को बस जिंदा रख सकती हैँ, उन्हें स्वस्थ एवं खुशहाल जिंदगी नहीं दे सकतीं। यह सरकार के लिए आत्म-मंथन का सवाल है कि क्या भारतीय अर्थव्यवस्था देश की बहुसंख्यक आबादी को ऐसी जिंदगी का आधार पर उपलब्ध करवा रही है?
