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Be it Modi or Rahul, everyone's Mecca is America-London! - Harishankar Vyas

मोदी हों या राहुल, सबका मक्का अमेरिका-लंदन! – हरिशंकर व्यास

यह सच्चाई है। तभी आजाद भारत की मनोदशा का यह नंबर एक छल है कि हम रमते हैं पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति में लेकिन तराना होता है हिंदी-चीनी भाई-भाई या रूस-भारत भाई-भाई। यों आजाद भारत का पूरा सफर दोहरे चरित्र व पाखंडों से भरा पड़ा है लेकिन भारत की विदेश नीति में जितना पाखंड, दिखावा और विश्वगुरू बनने की जुमलेबाजी हुई वह रिकार्ड है। मैंने अफगानिस्तान पर सोवियत संघ के हमले, शीतयु्द्ध के पीक वक्त में अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर लिखना शुरू किया था। तब से आज तक वैश्विक मामलों में भारत की विदेश नीति के दिखावे और हकीकत, झूठ और सत्य के ऐसे-ऐसे ढोंग देखे हैं, जिससे विशाल आबादी वाला भारत दुनिया की तो छोड़ें गली का चौधरी भी नही बन पाया। जबकि चीन देखते-देखते सचमुच अब विश्व व्यवस्था की नंबर दो धुरी है। तब सोवियत संघ धुरी था और चीन १९८५ में दुनिया का अछूत तथा निवेश-तकनीक की जुगाड़ का एक कंगला देश। लेकिन चीन ने अमेरिका को, निक्सन व किसिंजर को पटाया। और अमेरिकी-पश्चिमी देशों की बुद्धि-तकनीक विज्ञान-पूंजी से अपने को दुनिया की फैक्टरी बना नंबर दो वैश्विक ताकत हुआ।
वही भारत के राजीव गांधी से लेकर वाजपेयी, डॉ. मनमोहन सिंह, नरेंद्र मोदी सबने अमेरिका-पश्चिमी देशों को इसलिए नहीं पटाया क्योंकि पंडित नेहरू, कृष्ण मेनन, इंदिरा गांधी की लुटियन दिल्ली में उन दिनों निर्गुट देशों की धुरी का पाखंड था। मतलब हम गरीब, दक्षिण दुनिया के चौधरी। हमें न अमेरिका से मतलब और न सोवियत संघ से। हम तो निर्गुट। जबकि यह पाखंड बोलता हुआ था कि भारत ने सोवियत संघ से बीस साला मैत्री संधि कर वह उससे हथियार खरीद रहा है। तब भी कम्युनिस्ट हो या राष्ट्रवादी या दक्षिणपंथी सब इसी भ्रम में जीते थे कि हम तो जन्मजात विश्वगुरू और एटमी महाशक्ति। याद करें कम्युनिस्टों ने मनमोहन सरकार के अमेरिका के संग एटमी करार का कैसा तगड़ा विरोध किया जबकि वह भारत के अछूतपन को खत्म करने की कोशिश थी। पर सरकार दांव पर लग गई लेकिन मनमोहन सिंह ने दम दिखाया। यदि क्लिंटन के समय पीवी नरसिंह राव और डॉ. मनमोहन सिंह के वक्त अमेरिका से नए सिरे से केमिस्ट्री नहीं बनी होती तो आज भी एटमी विस्फोटों के बाद विश्व समुदाय में बना भारत का अछूतपना बना हुआ होता। इसलिए कि नरेंद्र मोदी ने भी अपने प्रति पश्चिम देशों के लोकतंत्र में बनी हुई एलर्जी में तथा चीन से धंधे से चमत्कृत हो कर शी जिनफिंग को झूले झुलाते हुए राज शुरू किया था। वे पुतिन के मुरीद थे।
पते की बात है कि आजाद भारत का हर नेता, हर अफसर, हर सेठ, हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति विदेश में जा कर बसा है। वही बेटे-बेटियों को पढ़ाता और बसाता है। भारत के लोग चीन, रूस या किसी अफ्रीकी देश में नहीं, बल्कि पश्चिमी देशों में जा कर बसे हैं, बसना चाहते हैं। पश्चिम में ही भारतीयों की बुद्धि-प्रतिभा को पंख लगते हैं जीवन बनता है। तभी ब्रिटेन, अमेरिका, कैनेडा, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप के देश प्रवासी भारतीयों का नंबर एक ठिकाना है। कोर कारण पश्चिमी सभ्यता के खुले और उदारवादी माहौल में काम के अवसर मिलना है। सुख-सुकून की सुरक्षित जिंदगी है। मुझे ध्यान नहीं है कि भारत के कम्युनिस्ट नेताओं में भी किसी ने अपने मक्का याकि चीन, सोवियत संघ, क्यूबा में बच्चों को पढने के लिए भेज वहां सीखने, कम्युनिस्ट आदर्शों वाली अपनी जिंदगी बनाने के लिए कहा हो।
विषयांतर हो रहा है। कुल मिलाकर नरेंद्र मोदी हों या राहुल गांधी सबका मक्का है अमेरिका और लंदन। तभी तमाम धिक्कारों के बावजूद नरेंद्र मोदी ने भी अमेरिका, ब्रिटेन की पश्चिमी देशों की बिरादरी में अपने सर्वाधिक बड़े शो किए हैं और करते हुए हैं। इन देशों के नेताओं से गले मिलने के उन्होंने तमाम तरह के जतन किए हैं ऐसे ही राहुल गांधी के लिए अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोप ही मक्का है! क्या मैं गलत हूं?
अमेरिकी नैरेटिव से भारत में वाह!
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी-सात देशों की बैठक में मेहमान प्रतिनिधि के तौर पर हिरोशिमा गए थे। वहां उन्होंने कई महत्वपूर्ण कूटनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लिया। उनका जी-सात की बैठक में भी भाषण हुआ और वे चार देशों के समूह क्वाड की बैठक में भी शामिल हुए। लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा किस बात की हुई? मीडिया और सोशल मीडिया में सबसे ज्यादा इस बात की चर्चा हुई कि अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने मोदी की सीट के पास जाकर उनसे हाथ मिलाया। इसके बाद जो दूसरी खबर चर्चा में रही वह यह थी कि बाइडेन ने मोदी से कहा कि उनकी लोकप्रियता देख कर लगता है कि उनका ऑटोग्राफ लेना चाहिए। भारत के लोग इस बात से बेहद खुश थे कि दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क का राष्ट्रपति मोदी के पास चल कर जाता है, उनसे हाथ मिलाता है और ऑटोग्राफ लेने की बात करता है। इसके बाद प्रधानमंत्री जब पापुआ न्यूगिनी पहुंचे तो वहां के राष्ट्रपति ने हवाईअड्डे पर उनके पैर छू लिए। फिर तो यह नैरेटिव अपने आप स्थापित हो गया कि मोदी ने दुनिया में भारत का मान बढ़ाया है। सबसे ताकतवर देश से लेकर सबसे कमजोर देशों में से एक तक का राष्ट्रपति मोदी को पसंद करता है, उनका सम्मान करता है।
बताने की जरूरत नहीं है कि यदि भारत के किसी प्रधानमंत्री को देश के लोगों के बीच या अपने समर्थकों के बीच धारणा बनवानी है कि उसकी वजह से भारत विश्व गुरू हुआ है तो इसका सर्टिफिकेट सबसे पहले अमेरिका से लेना होगा। किसी तरह से अगर अमेरिकी राष्ट्रपति ने तारीफ कर दी या गले लगा लिया तो मान लेंगे कि भारत बिग लीग में है। फिर वे निश्चिंत हो जाते हैं कि देश सुरक्षित हाथों में है। इस बात को मोदी जानते थे और उन्होंने सत्ता में आते ही सबसे पहला काम अमेरिका से सर्टिफिकेट हासिल करने का किया। उनके बुलावे पर अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आए। उसके बाद मोदी ने पहली बार किसी अमेरिकी राष्ट्रपति को गणतंत्र दिवस की परेड का मुख्य अतिथि बनाया। उन्होंने डोनाल्ड ट्रंप को भारत बुलाया और कोरोना की महामारी की शुरुआत के बीच अहमदाबाद से आगरा और दिल्ली तक कार्यक्रम कराया। वे गणतंत्र दिवस की परेड में मुख्य अतिथि बने। मोदी इसके बाद और भी राष्ट्र प्रमुखों से गले मिले लेकिन दुनिया में भारत का मान बढ़ाने वाली मोदी गाथा ओबामा और ट्रंप से स्थापित हुई, जो अब बाइडेन तक पहुंची। इसके लिए भारत सरकार ने क्या क्या किया वह अलग कहानी है।
असल में मोदी भारत के लोगों का मनोविज्ञान समझते हैं। उनके अवचेतन में अमेरिकी सपना पलता है। देश का मध्य वर्ग अमेरिका के लिए पागल है तो निचले तबके को भी लगता है कि अमेरिका से संबंध फायदेमंद होगा। अमेरिका के साथ बेहतर संबंध का राजनीतिक लाभ भी मिलता है। मनमोहन सिंह की सरकार की २००९ में हुई जीत इसकी मिसाल है। २००९ के लोकसभा चुनाव से नौ महीने पहले जुलाई २००८ में मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार दांव पर लगा कर अमेरिका के साथ परमाणु समझौता किया था। वह मील का पत्थर था। १९९८ के परमाणु परीक्षण के बाद भारत पर कई पाबंदियां लगी थीं, जो परमाणु समझौते के बाद हटीं और वैश्विक बिरादरी में भारत अछूतपन खत्म हुआ। इसका फायदा यह हुआ कि कई दशकों में संभवत: पहली बाद शहरी मध्य वर्ग ने कांग्रेस को वोट किया। कांग्रेस दिल्ली की सात में से छह सीटों पर जीती। मुंबई सहित देश के तमाम महनगरों में कांग्रेस को जीत मिली। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में कांग्रेस को २२ सीट मिली और वह कई शहरी सीटें जीतने में कामयाब रही।
यह अलग बात है कि कांग्रेस के मैनेजरों ने इस जीत की गलत व्याख्या की और २००९ के बाद मध्य वर्ग की चिंता पूरी तरह से छोड़ कर अधिकार आधारित कानून बनाने में मनमोहन सरकार बिजी हो गई। नरेंद्र मोदी भी ‘वंचितों को वरीयता’ की बात कर रहे हैं और गरीब कल्याण की योजनाएं चला रहे हैं लेकिन वे एक भी काम ऐसा नहीं करते हैं, जो उनके कोर वोट आधार को नाराज करे। उसको खुश करने वाले बहुत काम नहीं करते हैं तब भी नाराज करने वाला कोई काम नहीं करते हैं। अमेरिका के साथ बेहतर होते संबंधों की वजह से देश का मध्य वर्ग गदगद होगा। दूसरी ओर बाइडेन प्रशासन के साथ संबंध सुधार के लिए भी मोदी ने आगे बढ़ कर पहल की है। एक रणनीतिक गलती उनसे २०२० के राष्ट्रपति चुनाव से पहले हुई थी, जब ट्रंप के साथ एक कार्यक्रम में शामिल हुए थे और वहां ‘अबकी बार ट्रंप सरकार’ के नारे लगे थे। लेकिन उसके बाद कुछ भारत की पहल और कुछ अंतरराष्ट्रीय हालात की वजह से बाइडेन प्रशासन ने उस बात को भूल कर भारत को गले लगाया है। इसका भारत की घरेलू राजनीति पर बड़ा असर होगा। अमेरिकी संस्थाएं कुछ भी कहें लेकिन बाइडेन प्रशासन ऑप्टिक्स के लिए वह सब कुछ करने को तैयार है, जिससे मोदी खुश हो जाएं और अपनी राजनीति साधने के लिए उसका इस्तेमाल करें।

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