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अफगानिस्तान में तालिबान के २ साल

हाल ही में अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के २ वर्ष पूरे हुए हैं। समाज के कुछ वर्गों में कहा जा रहा है कि तालिबान का राज इतना बुरा भी नहीं है। ऐसी खबरें थीं कि देश की मुद्रा अफगानी की कीमत जब दिसंबर २०२१ में रिकार्ड निचले स्तर पर पहुंची तब मौलवियों ने केन्द्रीय बैंक से सलाह मांगी जिसमें बड़ी संख्या में पश्चिमी देशों में शिक्षित अधिकारी हैं और इसके कारण करेंसी में स्थिरता लौटी। आज उसका मूल्य डालर की तुलना में काबुल के पतन के दिन से ७ प्रतिशत कम है। भ्रष्टाचार पर अंकुश है। शरीयत कानून से कानून-व्यवस्था पर कठोर नियंत्रण है। विदेशी पाबंदियों के बावजूद तालिबान सरकार अपने कर्मचारियों के वेतन के लिए पर्याप्त रकम जुटा पा रही है। काबुल स्थित एक मीडिया संस्थान के प्रमुख, जिन्हें किसी भी तरह से मुल्लाओं का प्रशंसक नहीं माना जा सकता, वे मानते हैं कि अफगानिस्तान में प्रशासन पाकिस्तान से बेहतर है। वे यह भी मानते हैं कि अफगान टीवी चैनलों को भारत और तुर्की के चैनलों की तुलना में खबरें देने की अधिक आजादी है। अफगानिस्तान की समृद्ध ऐतिहासिक विरासत की पड़ताल में रूचि रखने वाले विदेशी और स्थानीय पुरातत्ववेत्ताओं और क्यूरेटरों का एक समूह, जो काबुल में है, तालिबान की इस बात के लिए प्रशंसा करता है कि वह देश में इस्लाम के आने के पहले के समय से जुड़े पुरातात्विक स्थलों की भी मरम्मत और देखभाल कर रहा है।
लेकिन इससे लोगों की बुरी दशा पर पर्दा नहीं पडता। अफगानिस्तान में नौकरियां नहीं हैं। पूरे देश में कुपोषण की स्थिति गंभीर होती जा रही है। खाद्यान्नों की जबरदस्त कमी है। दो जून की रोटी जुटाने के लिए बच्चों को भी माता-पिता जितनी मेहनत करनी पड़ रही है। सन् २०१९ में ६३ लाख अफगानियों को मानवीय सहायता की जरूरत थी और आज २ करोड़ ८० लाख को है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के अनुसार ९७ प्रतिशत अफगान गरीबी की रेखा के नीचे जी रहे हैं। महिलाओं के स्कूलों में दाखिले, काम करने और आजादी से रहने की मनाही है।ध्यान रहे सऊदी अरब, जो दुनिया के उन चन्द देशों में से एक हैं जिन्होंने तालिबान सरकार को मान्यता दी है, ने भी लड़कियों की माध्यमिक स्कूलों और विश्वविद्यालयों में प्रवेश वर्जित की निंदा की है।
तालिबानी अफगानिस्तान लगभग पूरी दुनिया से अलग-थलग है। जहां तक अफगानियों का सवाल है, जो देश छोड़कर नहीं जा सके हैं उन्होंने अपनी किस्मत से समझौता कर लिया है। वे थके हुए हैं और निराश भी। तालिबानी शासको को जनभावनाओं के बारे में न तो कुछ पता है और ना ही उसकी परवाह है क्योंकि वे ताकत और बंदूक से राज करते हैं। पश्चिमी देश नाराज़ तो है लेकिन किसी की भी अफग़़ानिस्तान में दिलचस्पी नहीं रही। अफगानिस्तान दुनिया की नजरों से दूर और उसके दिमाग से बाहर हो है और अफगानियों को कही से, किसी का भी सहारा नहीं है।

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